________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-११) रमणीय और दर्शनीय था। उसके प्रकोष्ठ स्थिर और सुन्दर थे। वह अपने गोल, पुष्ट, सुश्लिष्ट, विशिष्ट और तीक्ष्ण दाढ़ाओं से युक्त मुह को फाड़े हुए था। उसके प्रोष्ठ संस्कारित जातिमान् कमल के समान कोमल, प्रमाणोपेत एवं अत्यन्त सुशोभित थे। उसका तालु और जीभ रक्तकमल के पत्ते के समान अत्यन्त कोमल थी। उसके नेत्र, मूस में रहे हुए एवं अग्नि में तपाये हुए तथा आवर्त्त करते हुए उत्तम स्वर्ण के समान वर्ण वाले, गोल एवं विद्युत् के समान विमल (चमकीले) थे। उसकी जंघा विशाल एवं पुष्ट थी। उसके स्कन्ध (कंधे) परिपूर्ण और विपुल थे। वह मृदु (कोमल) विशद, सूक्ष्म एवं प्रशस्त लक्षण वाली विस्तीर्ण केसर की जटा से सुशोभित था / वह सिंह अपनी सुनिर्मित, सुन्दर एवं उन्नत पूछ को (पृथ्वी पर) फटकारता हुआ, सौम्य प्राकृति वाला, लीला करता हुआ, जंभाई लेता हुआ, गगनतल से उत्तरता हुआ तथा अपने मुख-कमल-सरोवर में प्रवेश करता हुआ दिखाई दिया। स्वप्न में ऐसे सिंह को देखकर रानी जागृत हुई। विवेचन-वासगृहस्थित शयनीय वर्णनपूर्वक प्रभावती द्वारा सिंह के स्वप्न को देखने का वर्णन-प्रस्तुत 23 वें सूत्र में तीन तथ्यों का वर्णन किया है-(१) प्रभावती रानी का वासगृह (2) शय्या एवं सिंहस्वप्न-दर्शन / ' कठिन शब्दों का भावार्थ-सचित्तकर्म-चित्रकर्म-युक्त / दूमियघट्टम?--सफेदी किये हुए एवं घिस कर चिकने किये हुए। उल्लोग- ऊपर का भाग। चिल्लियतले-चमकीला नीचे का भाग / मणिरतण-पणासियंधकारे--मणियों और रत्नों के प्रकाश से अन्धकार नष्ट कर दिया था / सालिंगणवट्टिए-शरीर-प्रमाण उपधान से युक्त / पंचवण्ण-सरस-सुरभि-मुक्क-पुष्फपुंजोवयारकलिए-पांच वर्ण सरस सुगन्धित पुष्पपंज के उपचार से युक्त / कालागुरु-पवरकूदुरुक्क-तुरुक्कधव-मघ-मघंतगंधद्धता भिरामे काला अगर, श्रेष्ठ कुन्दरुक्क (चीड़ा) एवं तुरुष्क (लोभान) के धूप की महकती हुई गन्ध से उड़ती हुई वायु से अभिराम / उभो बिब्बोयणे--दोनों ओर तकिये रखे हुए थे। गंगापुलिण-वालयउद्दाल-सालिसए–गंगा के पुलिन (तट) की बालू के फिसलन (पैर लगते ही नीचे धंस जाने) की तरह अत्यन्त कोमल / ओयविय-खोमिय-दुगुल्ल-पट्ट-पलिच्छायणे-सुसंस्कारित रेशमी दुकूलपट से आच्छादित / रत्तंसुय-संवए---रक्तांशुक की मच्छरदानी से ढकी हुई। हार-रयय - खीरसागर-ससंककिरणदगरय-रययमहासेलपंडुरतरोरु-रमणिज्जपेच्छणिज्ज-मुक्ताहार, रजत, क्षीरसागर, चन्द्रकिरण, जलकण एवं रजत-महाशैल के समान पाण्डुर (श्वेत वर्ण), अतएव विशाल, रमणीय और दर्शनीय / थिरलट्ठ-पउटु-वट्ट-पीवर-सुसिलिट्ठ-विसिद्ध-तिक्ख-दाढा-विडंबितमुहं उसका स्थिर एवं सुन्दर प्रकोष्ठ था; तथा वह गोल, पुष्ट , सुश्लिष्ट, विशिष्ट और तीक्ष्ण दाढों से युक्त मुख को फाड़े हए था। परिकम्मिय-जच्च-कमल-कोमल-माइय-सोभंत-लट्ठ-उ8-उसका होठ सुसंस्कारित जातिमान कोमल के कमल समान, प्रमाणोपेत, सुन्दर एवं सुशोभित था। रत्तुप्पल-पत्त-मज्य-सुकुमाल-तालु-जीहं / रक्तकमल-पत्र के समान कोमल (मद्र) एवं सुकूमाल थी। मसागयपवरकणग-तावित-पावत्तायंत-वट्ट-डि-विमल-सरिस-नयणं-उसके नयन मूस में रहे हुए तथा अग्नि में तपाए हुए तथा आवर्त करते हुए उत्तम स्वर्ण के समान वर्ण वाले, गोल तथा बिजली की चमक के समान थे। विसाल-पीवरोरु-पडिपुण्ण-विपुलखंधं-- वह विशाल एवं पुष्ट जंघाओं 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 2, पृ-५३७-५३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org