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________________ 74] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वाला तथा परिपूर्ण विपुल स्कन्ध (कंधों) वाला था / मिउ-विसद-सुहम-लक्खण-पसत्थ-वित्थिण्णकेसरसडोवसोभियं वह कोमल, विशद, सूक्ष्म एवं प्रशस्तलक्षण वाली, विशाल केसर-जटाओं से सुशोभित या / ऊसिय-सुनिम्मित-सुजात-अप्फोडितणंगलं—अपनी सुनिमित, सुन्दर एवं उन्नत पूंछ को फटकारता हुआ / नयलाओ ---गगनतल से। प्रोवयमाणं-उतरता हुआ / नियय-वदण-कमलसरमतिवयंते-अपने मुखकमल-सरोवर में प्रविष्ट होता हुआ / ' रानी द्वारा स्वप्ननिवेदन तथा स्वप्नफलकथनविनति 24. तए णं सा पभावती देवी अयमेयास्वं ओरालं जाव सस्सिरीयं महासुविणं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धा समाणी हट्टतुट्ठ जाव हिंदया धाराहयकलंबगं पिव समूसवियरोमकूवा तं सुविणं ओगिण्हति, ओगिहित्ता सयणिज्जाप्रो अन्भुठेति, अ० 2 प्रतुरियमचवलमसंभंताए अविलंबिताए रायहंससरिसीए गतीए जेणेव बलस्स रणो सणिज्जे तेणेव उवागच्छति, ते० उ० 2 बलं रायं ताहि इट्टाहि कंताहिं पियाहि मणुष्णाहि मणामाहि ओरालाहि कल्लाणाहिं सिवाहि धन्नाहि मंगल्लाहि सस्सिरोयाहि मियमहरमंजुलाहिं गिराहिं संलवमाणी संलवमाणी पडिबोहेति, पडि० 2 बलेणं रण्णा अभगुण्णाया समाणी नाणामणि-रयणभत्तिचित्तंसि भद्दासणंसि णिसीयति, णिसीयित्ता आसत्था वीसत्था सुहासणवरगया बलं रायं ताहि इटाहि कंताहिं जाव संलवमाणी संलवमाणी एवं बयासी-एवं खलु अहं देवाणप्पिया ! अज्ज तंसि तारिसर्गसि सयणिज्जंसि सालिगण० तं चेव जाव नियगवयणमतिवयंत सीहं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धा / तं गं देवाणुप्पिया ! एतस्स ओरालस्स जाव महासुविणस्स के मन्ने कल्लाणे फल वित्तिविसेसे भविस्सति ? [24] तदनन्तर वह प्रभावती रानी इस प्रकार के उस उदार यावत् शोभायुक्त महास्वप्न को देखकर जागृत होते ही अत्यन्त हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई; यावत् मेघ की धारा से विकसित कदम्बपुष्प के समान रोमांचित होती हुई उस स्वप्न का स्मरण करने लगी। फिर वह अपनी शय्या से उठी और शीघ्रता से रहित तथा अचपल, असम्भ्रमित (हड़बड़ी से रहित) एवं अविलम्बित अतएव राजहंस सरीखी गति से चलकर जहां बल राजा की शय्या थी, वहां पाई और बल राजा की शय्या के पास आ कर उन्हें उन इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनाम, उदार, कल्याणरूप, शिव, धन्य, मंगलमय तथा शोभायुक्त परिमित, मधुर एवं मंजुल बचनों से पुकार कर जगाने लगी। राजा जागृत हुआ। राजा की आज्ञा होने पर रानी विचित्र मणि और रत्नों की रचना से चित्रित भद्रासन पर बैठी। और उत्तम सुखासन से बैठ कर आश्वस्त (स्वस्थ और विश्वस्त (शान्ती हई रानी प्रभावती, बल राजा से इष्ट, कान्त यावत् मधुर वचनों से इस प्रकार बोली-'हे देवानुप्रिय ! आज मैं पूर्वोक्त वर्णन वाली सुख-शय्या पर सो रही थी, तब मैंने यावत् अपने मुख में प्रविष्ट होते हुए सिंह को स्वप्न मे देखा और मैं जाग्रत हुई हूं। तो, हे देवानुप्रिय ! मुझे इस उदार यावत् महास्वप्न का क्या कल्याणरूप फल विशेष होगा? 1 भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 540-541 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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