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________________ 200 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 15. तए णं से कालोबाई अणगारे अन्नया कयाई जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागन्छई, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वदासि-अस्थि णं भंते ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कति ? हंता, अस्थि / [15 प्र.] तदनन्तर अन्य किसी समय कालोदायी अनगार, जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ उनके पास आए और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा भगवन् ! क्या जीवों को पापफलविपाक से संयुक्त पाप-कर्म लगते हैं ? [15 उ.] हाँ, (कालोदायिन् ! ) लगते हैं / 16. कहं गं भंते ! जीवाणं पाया कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कज्ज्जति ? कालोदाई ! से जहानामए केइ पुरिसे मणुण्णं थालीपागसुद्ध अट्ठारसवंजणाकुलं विससंमिस्सं भोयणं भुजेज्जा, तस्स गं भोयणस्स प्रावाते भद्दए भवति, ततो पच्छा परिणममाणे परिणममाणे दुरूवत्ताए दुग्गंधत्ताए जहा महस्सवए (स० 6 उ० 3 सु०२ [1]) जाव भुज्जो भज्जों परिणमति, एवामेव कालोदाई ! जीवाणं पाणातिवाए जाव मिच्छादसणसल्ले, तस्स णं आवाते भद्दए भवइ, ततो पच्छा परिणममाणे परिणममाणे दुरूवत्ताए जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति, एवं खलु कालोदाई ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवाग० जाव कज्जति / [16 प्र.] भगवन् ! जीवों को पापफलविपाकसंयुक्त पापकर्म कैसे लगते हैं ? [16 उ.] कालोदायिन् ! जैसे कोई पुरुष सुन्दर स्थाली (हांडी, तपेली या देगची) में पकाने से शुद्ध पका हुआ, अठारह प्रकार के दाल, शाक आदि व्यंजनों से युक्त विषमिश्रित भोजन का सेवन करता है। वह भोजन उसे आपात (ऊपर-ऊपर से या प्रारम्भ) में अच्छा लगता है, किन्तु उसके पश्चात् वह भोजन परिणमन होता-होता खराब रूप में, दुर्गन्धरूप में यावत् छठे शतक के महाश्रव नामक तृतीय उद्देशक (सू. 2-1) में कहे अनुसार यावत् बार-बार अशुभ परिणाम प्राप्त करता है / हे कालोदायिन् ! इसी प्रकार जीवों को प्राणातिपात से लेकर यावत् मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह पापस्थान का सेवन ऊपर-ऊपर से प्रारम्भ में तो अच्छा लगता है, किन्तु बाद में जब उनके द्वारा बांधे हुए पापकर्म उदय में आते हैं, तब वे अशुभरूप में परिणत होते-होते, दुरूपपने में, दुर्गन्धरूप में यावत् बार-बार अशुभ परिणाम पाते हैं। हे कालोदायिन् ! इस प्रकार से जीवों के पापकर्म अशुभफलविपाक से युक्त होते हैं। 17. अस्थि णं भंते ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा कल्लाणफलविवागसंजुत्ता कज्जति ? हंता, कज्जति। [17 प्र.] भगवन् ! क्या जीवों के कल्याण (शुभ) कर्म कल्याणफल विपाक सहित होते हैं ? [17 उ.] हाँ, कालोदायिन् ! होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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