________________ सप्तम शतक : उद्देशक-१०] [199 12. एत्थ णं से कालोदाई संबद्ध समणं भगवं महावीरं वदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी-इच्छामि णं भंते ! तुम्भं अंतिए धम्मं निसामित्तए एवं जहा खंदए (श० 2 उ०१ सू० 32.45) तहेव पन्वइए, तहेव एक्कारस अंगाई जाव विहरति / [12] (भगवान द्वारा समाधान पाकर) कालोदायी सम्बुद्ध (बोधि को प्राप्त) हमा। फिर उसने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया / बन्दन-नमस्कार करके उसने इस प्रकार कहा- 'भगवन् ! मैं आपसे धर्म-श्रवण करना चाहता हूँ।' भगवान् ने उसे धर्म-श्रवण कराया ! फिर जैसे स्कन्दक ने भगवान से प्रव्रज्या अंगीकार की थी (श. 2 उ. 1 सू. 32-45) वैसे ही कालोदायी भगवान् के पास प्रबजित हुआ। उसी प्रकार उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया;...... यावत् कालोदायी अनगार विचरण करने लगे। विवेचन--अन्यतीथिक कालोदायी की पंचास्तिकायचर्चा और सम्बद्ध होकर प्रव्रज्यास्वीकार-प्रस्तुत उद्देशक के प्रारम्भ से लेकर 12 सूत्रों में कालोदायी का अनगार के रूप में प्रवजित होने तक का घटनाक्रम प्रतिपादित किया गया है / कालोदायी के जीवनपरिवर्तन का घटनाचक-(१) कालोदायी आदि अन्यतीथिक साथियों का पंचास्तिकाय के सम्बन्ध में वार्तालाप, (2) श्री गौतमस्वामी को पास से जाते देख, पंचास्तिकाय सम्बन्धी भगवान् की मान्यता के सम्बन्ध में उनसे पूछा, (3) उन्होंने कालोदायी आदि की पञ्चास्तिकाय-सम्बन्धी मान्यता भगवत्सम्मत बताई, (4) जिज्ञासावश कालोदायी ने भगवान् का साक्षात्कार करके पुन: समाधान प्राप्त किया, पंचास्तिकाय के सम्बन्ध में अन्य प्रश्न किये, (5) संतोषजनक उत्तर पाकर वह सम्बोधि-प्राप्त हुआ, (6) भगवान् से उसने धर्म-श्रवण की इच्छा प्रकट की, धर्मोपदेश सुना, स्कन्दक की तरह संसारविरक्त होकर प्रवजित हुआ, (7) कालोदायी अनगार ने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और विचरण करने लगा।' जीवों के पापकर्म और कल्याणकर्म क्रमशः पाप-कल्याण-फल-विपाकसंयुक्त होने का सदृष्टान्त निरूपण 13. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाई रायगिहातो नगरातो गुणसिल० पडिमिक्खमति, 2 बहिया जणवयविहारं विहरइ / [13] किसी समय श्रमण भगवान् महावीर राजगृह नगर के गुणशीलक चैत्य से निकल कर बाहर जनपदों में विहार करते हुए विचरण करने लगे। 14. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे, गुणसिलए चेइए। तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ जाव समोसढे, परिसा जाव पडिगता / [14] उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था / (नगर के बाहर) गुणशीलक नामक चैत्य था। किसी समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पुनः वहाँ पधारे यावत् उनका समवसरण लगा / यावत् परिषद् धर्मोपदेश सुन कर लौट गई। 1. वियाहपण्णत्ति सुत्त (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भाग 1, पृ. 312 से 315 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org