________________ सप्तम शतक : उद्देशक-१०] [201 . 18. कहं णं भंते ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा जाब कज्जति ? कालोदाई ! से जहानामए केइ पुरिसे मणुण्णं थालीपागसुद्ध अट्ठारसवंजणाकुलं प्रोसहसम्मिस्सं मोयणं भुजेज्जा, तस्स णं भोयणस्स प्रावाते णो भदए भवति, तो पच्छा परिणममाणे परिणममाणे सुरूवत्ताए सुदण्णत्ताए जाव सुहत्ताए, नो दुक्खताए भुज्जो भुज्जो परिणमति / एवामेव कालोदाई ! जीवाणं पाणातिवातवेरमणे जाब परिगहवेरमणे कोहविवेगे जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे तस्स णं आवाए नो भद्दए भवइ, ततो पच्छा परिणममाणे परिणममाणे सुरूवत्ताए जान सुहत्ताए, नो दुक्खत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमइ; एवं खलु कालोदाई ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा जाव कज्जंति / [18 प्र.] भगवन् ! जीवों के कल्याणकर्म, कल्याणफलविपाक से संयुक्त कैसे होते हैं ? [18 उ.] कालोदायिन् ! जैसे कोई पुरुष मनोज्ञ (सुन्दर) स्थाली (हांडी, तपेली यां देगची) में पकाने से शुद्ध पका हुआ और अठारह प्रकार के दाल, शाक आदि व्यंजनों से युक्त औषधमिश्रित भोजन करता है, तो वह भोजन ऊपर-ऊपर से प्रारम्भ में अच्छा न लगे, परन्तु बाद में परिणत होता-होता जब वह सुरूपत्व रूप में, सुवर्णरूप में यावत् सुख (या शुभ) रूप में बार-बार परिणत होता है, तब वह दुःखरूप में परिणत नहीं होता; इसी प्रकार हे कालोदायिन् ! जीवों के लिए प्राणातिपातविरमण यावत परिग्रह-विरमण, क्रोधविवेक (क्रोधत्याग) यावत मिथ्यादर्शनशल्य-विवेक प्रारम्भ में अच्छा नहीं लगता, किन्तु उसके पश्चात् उसका परिणमन होते-होते सुरूपत्व रूप में, सुवर्णरूप में उसका परिणाम यावत् सुखरूप होता है, दुःखरूप नहीं होता। इसी प्रकार हे कालोदायिन् ! जीवों के कल्याण (पुण्य) कर्म कल्याणफल विपाक-संयुक्त होते हैं। विवेचन-जीवों के पापकर्म और कल्याणकर्म क्रमशः पापकल्याणफलविपाक-संयुक्त होने का सदृष्टान्त निरूपण-प्रस्तुत छह सूत्रों में कालोदायी अनगार द्वारा पापकर्म और कल्याणकर्म के फल से सम्बन्धित चार प्रश्नों का भगवान् द्वारा दिया गया दृष्टान्तपूर्वक समाधान प्रस्तुत किया गया है। निष्कर्ष जिस प्रकार सर्वथा सुसंस्कृत एवं शुद्ध रीति से पकाया हुआ विषमिश्रित भोजन खाते समय बड़ा रुचिकर लगता है, किन्तु जब उसका परिणमन होता है, तब वह अत्यन्त अप्रीतिकर, दुःखद और प्राणविनाशकारक होता है। इसी प्रकार प्राणातिपात आदि पापकर्म करते समय जीव को अच्छे लगते हैं, किन्तु उनका फल भोगते समय वे बड़े दुःखदायी होते हैं / औषधयुक्त भोजन करना कष्टकर लगता है, उस समय उसका स्वाद अच्छा नहीं लगता, किन्तु उसका परिणाम हितकर, सुखकर और प्रारोग्यकर होता है / इसी प्रकार प्राणातिपातादि से विरति कष्टकर एवं अरुचिकर लगती है, किन्तु उसका परिणाम अतीव हितकर और सुखकर होता है।' अग्निकाय को जलाने और बुझानेवालों में से महाकर्म आदि और अल्पकर्मादि से संयुक्त कौन और क्यों ? 16 [1] दो भंते ! पुरिसा सरिसया जाव सरिसभंडमत्तोवगरणा अन्नमन्नेणं सद्धि अगणिकायं समारभंति, तत्थ णं एगे पुरिसे अगणिकायं उज्जालेति, एगे पुरिसे अगणिकायं निव्वावेति / 1. भगवती, अ. वृत्ति, पत्रांक 326 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org