________________ 202] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र एतेसि णं भंते ! दोण्हं पुरिसाणं कतरे पुरिसे महाकम्मतराए बेव, महाकिरियतराए चेव, महासवतराए चेव, महावेदणतराए चेव ? कतरे वा पुरिसे प्रष्पकम्मतराए चेव जाव अप्पवेदणतराए चेव ? जे वा से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेति, जे वा से पुरिसे अगणिकायं निव्वावेति ? __ कालोदाई ! तत्थ गंजे से पुरिसे प्रगणिकायं उज्जालेति से णं पुरिसे महाकम्मतराए चेव जाव महावेदणतराए चेव / तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं निम्बावेति से गं पुरिसे अप्पकम्मतराए चेव जाव अपवेयणतराए चेव / [16-1 प्र.] भगवन् ! (मान लीजिए) समान उम्र के यावत् समान ही भाण्ड, पात्र और उपकरण वाले दो पुरुष, एक दूसरे के साथ अग्निकाय का समारम्भ करें; (अर्थात-) उनमें से एक पुरुष अग्निकाय को जलाए और एक पुरुष अग्निकाय को बुझाए; तो हे भगवन् ! उन दोनों पुरुषों में से कौन-सा पुरुष महाकर्म वाला, महाक्रिया वाला, महा-आश्रव बाला और महावेदना र कोन-सा पुरुष अल्पकर्म वाला, अल्पक्रिया बाला, अल्प-प्राश्रब बाला और अल्पवेदना वाला होता है ? (अर्थात्--दोनों में से जो अग्नि जलाता है, वह महाकर्म आदि वाला होता है, या जो प्राग बुझाता है, वह महाकर्मादि युक्त होता है ?) [16-1 उ.] हे कालोदायिन् ! उन दोनों पुरुषों में से जो पुरुष अग्निकाय को जलाता है, वह पुरुष महाकर्म वाला यावत् महावेदना वाला होता है; और जो पुरुष अग्निकाय को बुझाता है, वह अल्पकर्म वाला यावत् अल्पवेदना वाला होता है / [2] से केण?णं भंते ! एवं वुच्चह-तत्य गंजे से पुरिसे जाव अप्पवेयणतराए चेव' ? कालोदाई ! तस्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेति से गं पुरिसे बहुतरागं पुढविकायं समारभति, बहुत रागं प्राउकायं समारभति, प्रपतरागं तेउकायं समारभति, बहुत रागं वाउकायं समारभति, बहुत रागं वणस्सतिकार्य समारभति, बहुतरागं तसकार्य समारभति / तत्थ णं जे से पुरिसे प्रगणिकायं निव्वादेति से णं पूरिसे अप्पतरागं पृढविक्कायं समारभति, अप्प० प्राउ०, बहतरागं तेउवकायं समारभति, अप्पतरागं वाउकायं सभारभइ, अप्पतरागं वणस्सतिकायं समारभइ, अप्पतरागं तसकायं समारभइ / से तेणढणं कालोदाई ! जाव अप्पवेदणतराए चेव / [19-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि उन दोनों पुरुषों में से जो पुरुष अग्निकाय को जलाता है, वह महाकर्म वाला आदि होता है और जो अग्निकाय को बुझाता है, वह अल्पकर्म वाला आदि होता है ? [19-2 उ.] कालोदायिन् ! उन दोनों पुरुषों में से जो पुरुष अग्निकाय को जलाता है, वह पृथ्वीकाय का बहत समारम्भ (वध) करता है, अप्काय का बहत समारम्भ करता है, तेजस काय का अल्प संमारंभ करता है, वायु काय का बहुत समारंभ करता है; वनस्पतिकाय का बहुत समारम्भ करता है और त्रसकाय का वहत समारम्भ करता है; और जो पुरुष अग्निकाय को बुझाता है, वह पृथ्वीकाय का अल्प समारम्भ करता है, अप्काय का अल्प समारम्भ करता है, वायुकाय का अल्प समारम्भ करता है, वनस्पतिकाय का अल्प समारम्भ करता है एवं त्रसकाय का भी अल्प समारम्भ करता है; किन्तु अग्नि काय का बहुत समारम्भ करता है। इसलिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org