________________ [717 अठारहवां शतक : उद्देशक 7] तुम्भे गं पाउसो ! अरणिसहगयस्स अगणिकायस्स रूवं पासह ? यो ति। अस्थि णं आउसो ! समुदस्स पारगताई रूवाई ? हंता, अस्थि / तुम्भे णं आउसो ! समुदस्स पारगयाई रुवाई पासह ? जो ति / अस्थि णं पाउसो ! देवलोगगयाइं स्वाइं? हंता, अस्थि। तुम्भे णं माउसो ! देवलोगगयाई रूवाई पासह ? जो ति० / एवामेव आउसो ! प्रहं वा तुब्भे वा अन्नो वा छउमत्थो जइ जो जन जाणति न पासति तं सव्वं न भवति एवं भे सुबहुलोए ण भविस्सतीति' कटु ते अन्नउत्थिए एवं पडिहणइ, एवं प० 2 जेणेव गुणसिलए चेतिए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, उ०२ समणं भगवं महावीर पंचविहेणं अभिगमेणं जाव पज्जुवासति / [32 उ.] तभी (इस प्राक्षेप का उत्तर देते हुए) मद्र क श्रमणोपासक ने उन अन्यतीथिकों से इस प्रकार कहा [प्र.] आयुष्मन् ! यह ठीक है न कि हवा बहती (चलती) है ? [उ.] हाँ, यह ठीक है। [प्र.] हे आयुष्मन् ! क्या तुम बहती (चलती) हुई हवा का रूप देखते हो ? [उ.] यह (वायु का रूप देखना) अर्थ शक्य नहीं है। [प्र.] अायुष्मन् ! नासिका के सहगत गन्ध के पुद्गल हैं न ? [उ.] हाँ, हैं। [प्र.] आयुष्मन् ! क्या तुमने उन घ्राण सहगत गन्ध के पुद्गलों का रूप देखा है ? [उ.] यह बात (गन्ध का रूप देखना) भी शक्य नहीं है। [प्र.] आयुष्मन् ! क्या अरणि की लकड़ों के साथ में रहा हुआ अग्निकाय है ? [उ.] हां, है / [प्र.] आयुष्मन् ! क्या तुम अरणि की लकड़ी में रही हुई उस अग्नि का रूप देखते हो? [उ.] यह बात तो शक्य नहीं है / [प्र.] आयुष्मन् ! समुद्र के उस पार रूपी पदार्थ हैं न ? [उ.] हाँ, हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org