________________ 716] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [26 प्र.] तभी उन अन्यतीथिकों ने मद्रक श्रमणोपासक को अपने निकट से जाते हुए देखा। उसे देखते ही उन्होंने एक दूसरे को बुला कर इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो ! यह मद्र क श्रमणोपासक हमारे निकट से होकर जा रहा है। हमें यह बात (पंचास्ति कायसम्बन्धी तत्व) अविदित है; अतः देवानुप्रियो ! इस बात को मद्रक श्रमणोपासक से पूछना हमारे लिए श्रेयस्कर है / ऐसा विचार कर वे परस्पर सहमत हुए और सभी एकमत होकर मद्र क श्रमणोपासक के निकट पाए / फिर उन्होंने मद्रक श्रमणोपासक से इस प्रकार पूछा—हे मद्रक ! बात ऐसी है कि तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र पांच अस्तिकायों को प्ररूपणा करते हैं, इत्यादि सारा कथन सातवें शतक के अन्यतीथिक उद्देशक (उ. 10 सू. 6-1) के समान समझना, यावत्—'हे मद्रक ! यह बात कैसे मानी जाए ?' 30. तए णं से मद्दए समणोवासए ते अन्नउस्थिए एवं वयासि--जति कज्ज कज्जति जाणामो पासामो; ग्रह कज्ज न कज्जति न जाणामो न पासामो / [30 उ.] यह सुन कर मद्रक श्रमणोपासक ने उन अन्यत्तीथिकों से इस प्रकार कहा--यदि वे धर्मास्तिकायादि कार्य करते हैं तभी उस पर से हम उन्हें जानते-देखते हैं; यदि वे कार्य न करते तो कारणरूप में हम उन्हें नहीं जानते-देखते / 31. तए णं ते अन्न उत्थिया मद्द यं समणोवासयं एवं वयासी-केस णं तुमं मह या ! समणोवासगाणं भवसि जेण तुमं एयमट्ठन जाणसि न पाससि ? [31 प्र.) इस पर उन अन्यतीर्थिकों ने (माक्षेपपूर्वक) मद्रक श्रमणोपासक से कहा किहे मद्र क ! तू कैसा श्रमणोपासक है कि तू इस तत्त्व (पंचास्तिकाय) को न तो जानता है और न प्रत्यक्ष देखता है (फिर भी भानता है) ? / ___32. तए णं से मह,ए समणोवासए ते अन्नउथिए एवं वयासि- 'भत्थि ज पाउसो ! वाउयाए वाति? हंता, अस्थि / तुम्भे णं आउसो ! वाउयायस्स वायमाणस्स एवं पासह ? 'णो तिण। अस्थि णं आउसो ! धाणसहगया पोग्गला? हंता, अस्थि / तुम्भे णं आउसो ! घाणसहगयाणं पोग्गलाणं रूवं पासह ? जो ति ! अस्थि णं आउसो ! अरणिसहगते अगणिकाए ? हंता, अस्थि / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org