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________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 7] [715 27. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नदा कदायि पुव्वाणव्धि चरमाणे जाव समोसढे। परिसा जाव पज्जुवासइ / [27] तभी अन्यदा किसी दिन पूर्वानुपूर्वीक्रम से विचरण करते हुए श्रमण भगवान् महावीर वहाँ पधारे। वे समवसरण में विराजमान हुए / परिषद् यावत् पर्युपासना करने लगी। 28. तए णं मद्द ए समणोबासए इमोसे कहाए लट्ठ समाणे हद्वतुटु० जाव हिदए हाए जाब सरीरे सानो गिहाओ पडिनिक्खमति, सा०प० 2 पायविहारचारेण रायगिहं नगरं जाव निग्गच्छति, निग्गच्छित्ता तेसि अन्नउत्थियाणं अदूरसामंतेणं वोतोक्यति / [28] मद्र क श्रमणोपासक ने जब श्रमण भगवान् महावीर के आगमन का यह वृत्तान्त जाना तो वह हृदय में अतीव हर्षित एवं यावत् सन्तुष्ट हुअा। उसने स्नान किया, यावत् समस्त अलंकारों से विभूषित होकर अपने घर से निकला / उसने पैदल चलते हुए राजगृह नगर के मध्य में होकर प्रस्थान किया / चलते-चलते वह उन अत्यतीथिकों के निकट से होकर जाने लगा। विवेचन-मद्रक श्रमणोपासक और भगवदर्शनार्थ उसकी पदयात्रा--राजगहनिवासी मद्रक श्रमणोपासक केवल धनाढ्य ही नहीं, सामाजिक, एवं धार्मिकजनों में अग्रणी, प्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित था, जीव, अजीव, बन्ध, मोक्ष, संवर, निर्जरा ग्रादि तत्त्वों का ज्ञाता था, किसी से दबने वाला नहीं था / भगवान् महावीर के प्रति उसकी अनन्य श्रद्धाभक्ति थी। जब उसने सुना कि भगवान मेरे नगर में पधारे हैं तो वह हृष्ट तुष्ट होकर सब प्रकार से सुसज्जित होकर सात्त्विक वेषभूषा में स्वयं पैदल चल कर भगवान के दर्शनों तथा प्रवचनादि श्रवण के लिए घर से निकला। राजगृह नगर के बीचोंबीच होकर उन अन्यतीथिकों के निवास के निकट होकर जाने लगा, जहाँ वे बैठे धर्मचर्चा कर रहे थे / इस पाठ से मद्रक की धर्मनिष्ठा, तत्त्वज्ञता, सामाजिकता तथा भगवान् के प्रति अनन्यभक्ति परिलक्षित होती है।' मद्र क को भगवद्दर्शनार्थ जाते देख अन्यतीथिकों की उससे पञ्चास्तिकाय सम्बन्धी चर्चा करने की तैयारी, उनके प्रश्न का मद्र के द्वारा अकाट्य युक्तिपूर्वक उत्तर 29. तए गं ते अन्नउत्थिया मह यं समणोवासयं अदूरसामंतेणं वीयीवयमाणं पासंति, पा० 2 अन्नमन्नं सदाति, अन्नमन्नं सद्दावेत्ता एवं वदासि—एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमा कहा अवि उपकडा, इमं च णं मद्द ए समणोवासए अम्हं अदूरसामंतेणं वीयोवयइ, तं सेयं खलु देवाणुपिया ! अम्हं मद्द,यं समणोवासयं एयमट्ठ पुच्छित्तए'त्ति कट्ट, अन्नमन्नस्स अंतियं एयम पडिसुति, अन्नमन्नस्स० प० 2 जेणेव मद्दए समणोवासए तेगेव उवागच्छति, उवा० 2 मद्द,यं समणोवासयं एवं बदासी-एवं खलु मद्दया! तव धम्मायरिए धम्मोवएसए समणे गायपुत्ते पंच अस्थिकाये परनवेह जहा सत्तमे सते उन्नउस्थिउद्देसए (स० 7 इ० 10 सु०६ [1] जाव से कहमेयं मह या! एवं? 1. वियाहाण्णत्तिसुत्तं भा. 2, (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 817-818 के प्राधार से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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