________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१] [241 88. जदि मणप्पयोगपरिणता कि सच्चमणप्पयोगपरिणया 4 ? गोयमा ! सच्चमणपयोगपरिणया वा जाव प्रसच्चामोसमणप्पयोगपरिणया वा 4 / प्रहवेगे सच्चमणप्पयोगपरिणए, दो मोसमणप्पयोगपरिणया एवं दुयसंयोगो, तियसंयोगो भाणियन्यो / एत्थ वि तहेव जाव अहवा एगे तंससंठाणपरिणए वा एगे चउरंससंठाणपरिणए वा एगे माययसंठाणपरिणए वा। [88 प्र.] भगवन् ! यदि तीन द्रव्य मनःप्रयोग-परिणत होते हैं, तो क्या वे सत्यमनःप्रयोगपरिणत होते हैं, असत्यमनःप्रयोगपरिणत होते हैं ? इत्यादि प्रश्न है। [88 उ.] गौतम ! वे (विद्रव्य) सत्यमनःप्रयोगपरिणत होते हैं, अथवा यावत् असत्यामृषामनःप्रयोगपरिणत होते हैं, अथवा उनमें से एक द्रव्य सत्यमनःप्रयोगपरिणत होता है, और दो द्रव्य मृषामनःप्रयोगपरिणत होते हैं; इत्यादि प्रकार से यहां भी द्विकसंयोगी भंग कहने चाहिए। तीन द्रव्यों के प्रयोग-परिणत की तरह ही मिश्रपरिणत और विस्रसा-परिणत के भंग कहने चाहिए यावत् अथवा एक त्र्यंस (त्रिकोण) संस्थानरूप से परिणत हो, एक समचतुरस्त्र-संस्थानरूप से परिणत हो और एक आयत-संस्थानरूप से परिणत हो, यहाँ तक कहना चाहिए / विवेचन-तीन द्रव्यों के मन-वचन-काया की अपेक्षा प्रयोग-मिश्र-विस्त्रसापरिणत पदों के भंग-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 86 से 88 तक) में तीन द्रव्यों के मन, वचन और काय की अपेक्षा, प्रयोगपरिणत, मिश्रपरिणत और विस्रसापरिणत इन तीन पदों के विविध भंगों का अतिदेशपूर्वक कथन किया गया है। तीन पदों के त्रिद्रव्यसम्बन्धी भंग-प्रयोगपरिणत आदि तीन पदों के असंयोगी तीन, द्विकसंयोगी छह, और त्रिकसंयोगी एक भंग होता है / कुल भंग 10 होते हैं। सत्यमन:प्रयोगपरिणत प्रादि के भंग-सत्यमनःप्रयोगपरिणत प्रादि 4 पद हैं, इनके असंयोगी (एक-एक) चार भंग, द्विकसंयोगी 12 भंग, और त्रिकसंयोगी 4 भंग होते हैं। यों कुल 4+12+4= 20 भंग हुए। इसी प्रकार मृषामनःप्रयोगपरिणत के भी 4 भंग समझने चाहिए। इसी रीति से वचनप्रयोगपरिणत और कायप्रयोगपरिणत के भंग समझ लेने चाहिए। मिश्र और विस्त्रसापरिणत के भंग-प्रयोगपरिणत की तरह मिश्रपरिणत के और विस्रसापरिणत के भी (वर्णादि के भेदों को लेकर) भंग कहने चाहिए।' चार आदि द्रव्यों के मन-वचन-काया की अपेक्षा प्रयोगादिपरिणत पदों के संयोग से निष्पन्न भंग 89. चत्तारि भंते ! दव्या कि पयोगपरिणया 3? गोयमा ! पयोगपरिणया वा, मौसापरिणया वा, वीससापरिणया वा / अहवेगे पप्रोगपरिणए, तिणि मोसापरिणया 1 / प्रहवा एगे पयोगपरिणए, तिणि वीससापरिणया 2 / अहवा दो पयोगपरिणया, दो मोसापरिणया 3 / प्रहवा दो पयोगपरिणया, दो वीससापरिणया 4 / अहवा तिष्णि 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 339 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org