________________ 534] [ब्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कठिनशब्दार्थ-अयं-लोहे को, अयकोटुंसि-लोहा तपाने की भट्टी में। उविहमाणे-- परिवहमाणे-ऊँचा-नीचा करते हुए / पुढे-स्पृष्ट / णिवत्तिए-निष्पन्न (निवर्तित) बनो हुई। इंगालकढणी-अंगारे निकालने की लोहे की छड़ (यष्टि) / भत्था--धमण / उक्खिवमाणेमिक्खिवमाणे-निकालने और डालते या रखते-उठाते / चम्मे?-घन / मुट्टिए-हथौड़ा / अधिकरणिखोडी-एहरन का लकड़ा। उदगदोणी-पानी की कुण्डी / अधिकरणसाला-लुहारशाला।' जीव और चौवीस दण्डकों में अधिकरणी-अधिकरण, साधिकरणी निरधिकरणी, आत्माधिकरणी प्रादि तथा प्रात्मप्रयोगनिवर्तित आदि अधिकरण सम्बन्धी निरूपरण 6. [1] जीवे भंते ! कि अधिकरणी, अधिकरण ? गोयमा ! जीवे अधिकरणी वि, अधिकरणं पि / [9-1 प्र.] भगवन् ! जीव अधिकरणो है या अधिकरण ? [8-1 उ.] गौतम ! जीव अधिकरणी भी है और अधिकरण भी। [2] से केणटुणं भंते ! एवं वुच्चति 'जीवे अधिकरणी वि, अधिकरणं पि' ? गोयमा ! अविरति पडुच्च, से तेण?ण जाव अहिकरणं पि / [9-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से यह कहा जाता है कि जीव अधिकरणो भी है और अधिकरण भी? [6-2 उ.] गौतम ! अविरति की अपेक्षा जीव अधिकरणी भी है और अधिकरण भो है। 10. नेरतिए णं भंते ! कि अधिकरणी, अधिकरणं? गोयमा ! अधिकरणी वि, अधिकरणं पि / एवं जहेव जोवे तहेव नेरइए वि / [10 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव अधिकरणी है या अधिकरण? [10 उ.] गौतम ! वह अधिकरणी भी है और अधिकरण भी है / जिस प्रकार (सामान्य) के विषय में कहा उसी प्रकार नैरयिक के विषय में भी जानना चहिए / 11. एवं निरंतरं जाव वेमाणिए / [11] इसी प्रकार लगातार यावत् वैमानिक तक जानना चाहिए / 12. [1] जीवे णं भंते ! कि साहिकरणी, निरधिकरणी ? गोयमा ! साहिकरणी, नो निरहिकरणी। [12-1 प्र.] भगवन् ! जीव साधिकरणी है या निरधिकरणी ? [12-1 उ.] गौतम ! जीव साधिकरणी है, निरधिकरणी नहीं। 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 697 (ख) भगवती, (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2507 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org