________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 1] [533 वा तावं च गं से पुरिसे काइयाए जाव पाणातियाकिरियाए पंचहि किरियाहि पुढ, जेसि पि य गं जीवाणं सरीरेहितो अये निव्वत्तिए, अयको निध्वत्तिए, संडासए निव्वत्तिए, इंगाला निव्वत्तिया, इंगालकट्टणी निव्वत्तिया, भत्था निव्वत्तिया, ते वि णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुट्ठा। [7 प्र. भगवन् ! लोहा तपाने की भट्टी (अयःकोष्ठ) में तपे हुए लोहे को लोहे की संडासी से पकड़ कर) ऊँचा-नीचा करने (ऊपर उठाने और नीचे करने वाले पुरुष को कितनो क्रियाएँ लगती है ? [7 उ.] गौतम ! जब तक वह पुरुष लोहा तपाने की भट्टी में लोहे की संडासी से (पकड़ कर) लोहे को ऊँचा या नीचा करता है, तब तक वह पुरुष कायिकी से लेकर प्राणातिपातिको क्रिया तक पांचों क्रियाओं से स्पृष्ट होता है / तथा जिन जीवों के शरीर से लोहा बना है, लोहे की भट्टी बनी है, संडासी बनो है. अंगारे बने हैं. अंगारे निकालने की लोहे की छड़ (यष्टि) बनी है, और धमण बनी है, वे सभी जीव भी कायिकी से लेकर यावत प्राणातिपातिकी तक पांचों क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। 8. पुरिसे णं भंते ! अयं प्रयकोढाओ अयोमएणं संडासएणं गहाय अहिकरणिसि उक्खिवमाणे वा निविखवमाणे वा कतिकिरिए ? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे अयं अयकोटामो जाव निक्खिवति वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पाणातिवायकिरियाए पंचहि किरियाहि पुटु, जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहितो अये निवत्तिए, संडासए निव्वत्तिते, चम्भे? निव्वत्तिए, मुट्ठिए निवत्तिए, अधिकरणी णिव्वत्तिता, अधिकरणिखोडी वित्तिता, उदगदोणी गि, अधिकरणसाला निब्बत्तिया ते वि णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुट्ठा। [प्र.] भगवन् ! लोहे की भट्टी में से, लोहे को, लोहे की संडासी से पकड़ कर एहरन (अधिकरणी ) पर रखते और उठाते हुए पुरुष को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? [8 उ.] गौतम ! जब तक लोहा तपाने की भट्टी में से लोहे को संडासी से पकड़ कर यावत् रखता है, तब तक वह पुरुष कायिकी यावत् प्राणातिपातिकी तक पांचों क्रियानों से स्पृष्ट होता है। जिन जीवों के शरीर से लोहा बना है, संडासी बनी है, घन बना है, हथौड़ा बना है, एहरन बनी है, एहरन का लकड़ा बना है गर्म लोहे को ठंडा करने की उदकद्रोणी (कुण्डी) बनी है, तथा अधिकरणशाला (लोहार का कारखाना) बनी है, वे जीव भी कायिकी आदि पांचों क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। विवेचनप्रस्तुत दो सूत्रों (मू. 7-8) में लोहे की भट्री में लोहे को संडासी से पकड़ कर ऊँचा नीचा करने वाले या भट्टी से एहरन पर रखने उठाने वाले व्यक्ति को तथा जिन जीवों के शरीर से लोहा तथा उपकरण बने हैं, उन सबको कायिकी से लेकर प्राणातिपातिकी तक पांचों क्रियाओं की प्ररूपणा की गई है। पांच क्रियाओं के नाम-कायिकी; आधिकरणिकी, प्राषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातिकी / इनका स्वरूप पहले बताया जा चुका है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org