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________________ 532] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पृथ्वीकायादि पांच स्थावरों के साथ जब विजातीय जीवों का तथा विजातीय स्पर्श वाले पदार्थों का संघर्ष होता है, तब उनके शरीर का घात होता है या विना स्पर्श आदि से ही होता है ? इसी प्राशय से अन्तःप्रश्न किया गया है। उत्तर में कहा गया है कि किसी दूसरे पदार्थ (अचित्त वायु आदि का) स्पर्श होने पर ही वायुकाय के जीव मरते हैं, विना स्पर्श हुए नहीं / यह कथन सोपक्रम अायुष्य की अपेक्षा से है / तीसरा प्रश्न है-जीव परभव में सशरीर जाता है, या शरीररहित होकर ? इसका उत्तर यह है कि जीव तैजस-कार्मण शरीर की अपेक्षा से शरीरसहित जाता है और औदारिक शरीर आदि की अपेक्षा से शरीररहित होकर जाता है।' कठिन शब्दों का भावार्थ-अधिकरणसि-लोहादि कटने के लिए जो नीचे रखा जाता है, वह (एहरन) अर्थात् एहरन पर हथौड़े से चोट मारते समय ! पुढे-स्वकाय-शस्त्र प्रादि से स्पृष्ट होने पर / निक्खमइ-निकलता है। अंगारकारिका में अग्निकाय की स्थिति का निरूपण 6. इंगालकारियाए णं भंते ! अगणिकाए केवतियं कालं संचिइ ? गोयमा ! जहन्नणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तिन्नि रातिदियाई / अन्ने वि तत्थ वाउयाए बक्कमति, न विणा बाउकाएणं अगणिकाए उज्जलति / [6 प्र.] भगवन् ! अंगारकारिका (सिगड़ी) में अग्निकाय कितने काल तक (सचित्त) रहता है? [6 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन रातदिन तक सचित्त रहता है। वहाँ अन्य वायुकायिक जीव भी उत्पन्न होते हैं, क्योंकि वायुकाय के विना अग्निकाय प्रज्वलित नहीं होता। विवेचन--अग्निकाय की स्थिति-अग्निकाय चाहे सिगडी में हो या अन्य चूल्हे प्रादि में, उसकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन अहोरात्र की है।। इंगालकारियाए: अर्थ-जो अंगारों को करती है, वह अंगारकारिका अग्निकारिकाअग्निशकटिका है / उसे देशीभाषा में सिगड़ी' कहते हैं / अग्नि और वायु का सम्बन्ध-'यत्राग्निस्तत्र वायु:' इस नियमानुसार जहाँ अग्नि होती है, वहाँ वायु अवश्य होती है / अर्थात्---अग्निकाय के साथ बायुकाय के जीव भी उत्पन्न होते हैं। तप्त लोह को पकड़ने में क्रियासम्बन्धी प्ररूपणा 7. पुरिसे णं भंते ! अयं अयकोट्ठसि अयोमयेणं संडासएणं उबिहमाणे वा पबिहमाणे वा कतिकिरिए ? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे अयं अयकोसि अयोमयेणं संडासएणं उविहति वा पब्विहति १.(क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 697 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5 पृ. 2505 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 697-698 3. भगवती अ. वृत्ति, पत्र 698 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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