________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 1] [2] से केण?णं० पुच्छा। गोयमा ! अविति पच्च, से तेण?णं जाव नो निरहिकरणी। [12-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा गया ? इत्यादि प्रश्न / [12-2 उ.] गौतम ! अविरति की अपेक्षा जीव साधिकरणी है, निरधिकरणी नहीं / 13. एवं जाव वेमाणिए / [13] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए / 14. [1] जीवे णं भंते ! कि प्रायाहिकरणी, पराहिकरणी, तदुभयाधिकरणी? गोयमा ! आयाहिकरणी वि, पराधिकरणी वि, तदुमयाहिकरणी वि / [14-1 प्र.] भगवन् ! जीव प्रात्माधिकरणी है, पराधिकरणी है, अथवा उभयाधिकरणी है ? [14-1 उ.] गौतम ! जीव आत्माधिकरणी भी है पराधिकरणी भी है और तदुभयाधिकरणी भी है। [2] से केणणं भंते ! एवं वच्चति जाव तदुभयाधिकरणी वि? गोयमा ! अविति पडुच्च / से तेणढणं जाव तदुभयाधिकरणी वि / [14-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस हेतु से कहा गया है कि जीव यावत् तदुभयाधिकरणी [14-2 उ.] गौतम ! अविरति की अपेक्षा जीव यावत् तदुभयाधिकरणी भी है / 15. एवं जाव वेमाणिए। [15] इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक जानना चाहिए / 16. [1] जीवाणं भंते ! अधिकरणे किं आयप्पयोगनियत्तिए, परप्पयोगनिध्यत्तिए तदुभयप्पयोगनिव्वत्तिए? गोयमा ! आयप्पयोगनिव्वत्तिए वि, परप्पयोगनिवत्तिए वि, तदुभयप्पयोगनिवत्तिए वि। 16-1 प्र. भगवन् ! जीवों का अधिकरण आत्म-प्रयोग से होता है, पर-प्रयोग से निष्पन्न होता है, अथवा तदुभय-प्रयोग से होता है ? [१६-१उ.] गौतम ! जीवों का अधिकरण आत्मप्रयोग से भी निष्पन्न होता है, परप्रयोग से से भी और तदुभय-प्रयोग से भी निष्पन्न होता है / [2] से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ ? गोयमा ! अविरतिं पडुच्च / से तेण?ण जाव तदुभयप्पयोगनिबत्तिए वि। [16-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा गया ? [16-2 उ.] गौतम ! अविरति की अपेक्षा से यावत् तदुभयप्रयोग से भी निष्पन्न होता है। इसलिए हे गौतम ! यावत् तदुभयप्रयोग-निष्पन्न भी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org