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________________ 286] | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जेवेव तामलित्ती नगरी जेणेव तामली मोरियपुत्ते तेणेव उवागच्छति, २त्ता तामलिस्स बालतवस्सिस्स उपि सक्खि सपडिदिसि ठिच्चा दिव्वं देविडि दिव्वं देवज्जुति दिव्वं देवाणुमागं दिव्य बत्तीसतिविहं नट्टविहिं उवदसैंति, 2 तामलि बालतवस्सि तिक्खुत्तो प्रादाहिणं पदाहिणं करेंति वंदंति नमसंति, 2 एवं वदासी-"एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हे बलिचंचारायहाणीवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीमो य देवाणप्पियं वंदामो ममंसामो जाव पज्जुवासामो। अम्हं णं देवाणुप्पिया ! बलिचंचा रायहाणी अणिदा अपुरोहिया, अम्हे य णं देवाणुपिया ! इंदाहीणा इंदाहिट्ठिया इंदाहोणकज्जा, तं तुम णं देवाणुप्पिया ! बलिचंचं रायहाणि प्राढाह परियाणह सुमरह, अट्ठ बंधह, णिदाणं पकरेह, ठितिपकप्पं पकरेह / तए णं तुम्मे कालमासे कालं किच्चा बलिचंचारायहाणीए उवज्जिस्सह, तए णं तुब्भे अम्हं इंवा भविस्सह, लए णं तुम्भे अम्हेहिं सद्धि दिव्वाई भोगमोगाई भुजमाणा विहरिस्सह।" [41] उस काल उस समय में बलिचंचा (उत्तरदिशा के असुरेन्द्र असुरकुमारराज की) राजधानी इन्द्रविहीन और (इन्द्र के अभाव में) पुरोहित से विहीन थी। उन बलिचंचा राजधानी निवासी बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों ने तामली बालतपस्वी को अवधिज्ञान से देखा। देखकर उन्होंने एक दूसरे को बुलाया, और बुलाकर इस प्रकार कहा-'देवानुप्रियो ! (आपको मालम ही है कि) बलिचंचा राजधानी (इस समय) इन्द्र से विहीन और पुरोहित से भी रहित है। हे देवानुप्रियो ! हम सत्र (अब तक) इन्द्राधीन और इन्द्राधिष्ठित (रहे) हैं, अपना सब कार्य इन्द्र की अधीनता में होता है / हे देवानुप्रियो ! (भारतवर्ष में ताम्रलिप्ती नगरी में) यह तामली बालतपस्वी ताम्रलिप्ती नगरी के बाहर उत्तरपूर्वदिशाभाग (ईशान कोण) में निवर्तनिक (निवर्तनपरिमित या अपने शरीरपरिमित) मंडल (स्थान) का अालेखन करके, संलेखना तप की आराधना से अपनी प्रात्मा को सेवित करके, आहार-पानी का सर्वथा प्रत्याख्यान कर, पादपोपगमन अनशन को स्वीकार करके रहा हुआ है। अत: देवानुप्रियो ! हमारे लिए यही श्रेयस्कर है कि तामली बालतपस्वी को बलिचंचा राजधानी में (इन्द्र रूप में) स्थिति करने (आकर रहने) का संकल्प (प्रकल्प) कराएँ / ' ऐसा (विचार) करके परस्पर एक-दूसरे के पास (इस बात के लिए) वचनबद्ध हुए। फिर (वे सब अपने वचनानुसार) बलिचंचा राजधानी के बीचोंबीच होकर निकले और जहाँ रुचकेन्द्र उत्पातपर्वत था, वहाँ पाए। वहाँ पाकर उन्होंने वैक्रिय समुद्घात से अपने आपको समवहत (युक्त) किया, यावत् उत्तरवैक्रिय रूपों की विकुर्वणा की। फिर उस उत्कृष्ट, त्वरित, चपल, चण्ड, जयिनी, छेक (निपुण) सिंहसदृश, शीघ्र, दिव्य और उद्धृत देवगति से (वे सब) तिरछे असंख्येय द्वीप-समुद्रों के मध्य में होते हए जहाँ जम्बूद्वीप नामक द्वीप था, जहाँ भारतवर्ष था, जहाँ ताम्रलिप्ती नगरी थी, जहाँ मौर्यपुत्र तामली तापस था, वहाँ आए, और तामली बालतपस्वी के (ठीक) ऊपर (अाकाश में) चारों दिशाओं और चारों कोनों (विदिशाओं) में सामने खड़े (स्थित) होकर दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्य ति, दिव्य देवप्रभाव और बत्तीस प्रकार की दिव्य नाटकविधि बतलाई / इसके पश्चात् तामली बालतपस्वी की दाहिनी ओर से तीन बार प्रदक्षिणा की, उसे वन्दननमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके वे इस प्रकार बोले-हे देवानुप्रिय ! हम बलिचंचा राजधानी के निवासी बहुत-से असुरकुमार देव और देवीवृन्द प्राप देवानुप्रिय को वन्दन-नमस्कार करते हैं यावत् आपकी पर्युपासना करते हैं / हे देवानुप्रिय ! (इस समय) हमारी बलिचंचा राजधानी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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