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________________ तृतीय शतक : उद्देशक-१ ] [287 इन्द्र और पुरोहित से विहीन है। और हे देवानुप्रिय ! हम सब इन्द्राधीन और इन्द्राधिष्ठित रहने वाले हैं / और हमारे सब कार्य इन्द्राधीन होते हैं। इसलिए हे देवानुप्रिय ! आप बलिचंचा राजधानी (के अधिपतिपद) का आदर करें (अपनावें) / उसके स्वामित्व को स्वीकार करें, उसका मन में भलीभाँति स्मरण (चिन्तन) करें, उसके लिए (मन में) निश्चय करें, उसका (बलिचंचा राजधानी के इन्द्रपद की प्राप्ति का) निदान करें, बलिचंचा में उत्पन्न होकर स्थिति (इन्द्र रूप में निवास करने का संकल्प (निश्चय) करें। तभी (बलिचंचा राजधानी के अधिपतिपदप्राप्ति का आपका विचार स्थिर हो जाएगा, तब ही) पाप काल (मृत्यु) के अवसर पर मृत्यु प्राप्त करके बलिचंचा राजधानी में उत्पन्न होंगे। फिर पाप हमारे इन्द्र बन जाएँगे और हमारे साथ दिव्य कामभोगों को भोगते हुए विहरण करेंगे। 42. तए णं से तामलो बालतवस्सो तेहि बलिचंचारायहाणिवत्थव्वहि बहिं असुरकुमारेहि देवेहि य देवोहि य एवं वुत्ते समाणे एयम नो पाढाइ नो परियाणेइ, तुसिणीए संचिट्ठ। [42] जब बलिचंचा राजधानी में रहने वाले बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों ने उस तामली बालतपस्वी को इस (पूर्वोक्त) प्रकार से कहा तो उसने उनकी बात का आदर नहीं किया, स्वीकार भी नहीं किया, किन्तु मौन रहा। 43. तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवोनो य तालि मोरियपुते दोच्चं पि तच्चं पि तिक्खुत्तो पादाहिणप्पदाहिणं करेंति, 2 जाव अम्हं च णं देवाणुप्पिया ! बलिचंचा रायहाणी अणिदा जाय ठितिपकप्पं पकरेह, जाव दोच्चं पि तच्चं पि एवं वुत्ते समाणे जाव तुसिणीए संचिदुइ। [43] तदनन्तर बलिचंचा-राजधानी-निवासी उन बहुत-से देवों और देवियों ने उस तामली बालतपस्वी को फिर दाहिनी ओर से तीन बार प्रदक्षिणा करके दूसरी बार, तीसरी बार पूर्वोक्त बात कही कि हे देवानुप्रिय ! हमारी बलिचंचा राजधानी इन्द्रविहीन और पुरोहितरहित है, यावत् आप उसके स्वामी बनकर वहाँ स्थिति करने का संकल्प करिये।' उन असुरकुमार देव-देवियों द्वारा पूर्वोक्त बात दो-तीन बार यावत् दोहराई जाने पर भी तामली मौर्यपुत्र ने कुछ भी जवाब न दिया यावत् वह मौन धारण करके बैठा रहा। 44. तए गं ते बलिचंचारायहाणिवत्थबया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीलो य तामलिणा बालतस्सिणा प्रणाढाइज्जमाणा अपरियाणिज्जमाणा जामेव दिसि पादुन्भूया तामेव दिसि पडिगया। 44] तत्पश्चात् अन्त में जब तामली बालतपस्वी के द्वारा बलिचंचा राजधानी-निवासी उन बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों का अनादर हुआ, और उनकी बात नहीं मानी गई, तब वे (देव-देवीवृन्द) जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में वापस चले गए / विवेचन-बलिचंचानिवासी देवगण द्वारा इन्द्र बनने की विनति और तामली तापस द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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