________________ 288 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अस्वीकार-प्रस्तुत चार सूत्रों (41 से 44 सू. तक) में तामली तापस से सम्बन्धित चार वृत्तान्त प्रतिपादित किये गए हैं-- (1) बलि चंचा राजधानी निवासी असुरकुमार देव-देवीगण द्वारा अनशन लोन तामली तापस को वहाँ के इन्द्रपद की प्राप्ति का संकल्प एवं निदान करने के लिए विनति करने का विचार / (2) तामली तापस की सेवा में पहुंचकर उससे बलिचंचा के इन्द्रपद प्राप्ति का संकल्प और निदान का साग्रह अनुरोध / (3) उनके अनुरोध का तामली तापस द्वारा अनादर और अस्वीकार / (4) तामली तापस द्वारा अनादृत्त होने तथा स्वकीय प्रार्थना अमान्य होने से उक्त देवगण का निराश होकर अपने स्थान को लौट जाना / पुरोहित बनने की विनति नहीं तामली तापस का उक्त देवगण ने पुरोहित बनने की विनति इसलिए नहीं की कि इन्द्र के अभाव में शान्तिकर्मकर्ता पुरोहित हो नहीं सकता था। देवों की गति के विशेषण-उक्किट्ठा = उत्कर्षवती, तुरिया = त्वरावाली गति, चवलाशारीरिक चपलतायुक्त, चंडा= रौद्ररूपा, जइणा = दूसरों की गति को जीतने वाली, छेया = उपायपूर्वकप्रवृत्ति होने से निपुण, सीहा=सिंह की गति के समान अनायास होने वाली, सिग्घा= शीघ्रगामिनी, दिव्या दिव्य-देवों की, उद्ध या = गमन करते समय वस्त्रादि उड़ा देने वाली, अथवा उद्धतसदर्प गति / ये सब देवों की गति (चाल) के विशेषण हैं। सपक्खि सपडिदिसि की व्याख्या--सपक्खि-सपक्ष अर्थात्-जिस स्थल में उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम, के सभी पक्ष-पाव (पूर्व आदि दिशाएँ विदिशाएं / ) एकसरीखे हों, वह सपक्ष / सपडिदिसि-जिस स्थान से सभी प्रतिदिशाएं (विदिशाएँ) एक समान हो, वह सप्रतिदिक है। तामली बालतपस्वी को ईशानेन्द्र के रूप में उत्पत्ति-- 45. तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे कप्पे अणि अपुरोहिते यावि होत्था / तए णं से तामली बालतवस्सी रिसो बहुपडिपुण्णाई सहि वाससहस्साई परियागं पाउणिता दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणं सित्ता सवीसं भत्तसयं प्रणसणाए छेदित्ता कालमासे कालं किच्चा ईसाणे कप्पे ईसाणडिसए विमाणे उबवातसभाए देवसयणिज्जसि देवसंतरिते अंगुलस्स असंखेज्जभागमेत्तीए प्रोगाहणाए ईसाणदेविदविरहकालसमयंसि ईसाणदेविदत्ताए उववन्ने / तए णं से ईसाणे देविदे देवराया अहणोववन्ने पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गच्छति, तं जहा--आहारपज्जत्तीए जाव भासा-मणपज्जत्तीए। [45] उस काल और उस समय में ईशान देवलोक (कल्प) इन्द्रविहीन और पुरोहितरहित भी था / उस समय ऋषि तामली बालतपस्वी, पूरे साठ हजार वर्ष तक तापस पर्याय का पालन करके, दो महीने की संलेखना से अपनी आत्मा को सेवित करके, एक सौ बीस भक्त (टंक) अनशन में काट कर (अर्थात्-१२० बार का भोजन छोड़ कर = दो मास तक अनशन का पालन कर) काल के 1. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 167 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org