________________ सप्तम शतक : उद्देशक-८] [175 विवेचन-हाथी और कुन्थए के समान जीवत्व की प्ररूपणा-प्रस्तुत द्वितीय सूत्र में रायपसेणीय सूत्रपाठ के अतिदेशपूर्वक हाथी और कुन्थुए के समजीवत्व की प्ररूपणा को गई है / राजप्रश्नीय सूत्र में समान जीवत्व की सदृष्टान्त प्ररूपणा हाथी का शरीर बड़ा और कुथुए का छोटा होते हुए भी दोनों में मूलतः आत्मा (जीव) समान है, इसे सिद्ध करने के लिए राजप्रश्नीय सूत्र में दीपक का दृष्टान्त दिया गया है / जैसे—एक दीपक का प्रकाश एक कमरे में फैला हुआ है, यदि उसे किसी बर्तन द्वारा ढंक दिया जाए तो उसका प्रकाश बर्तन-परिमित हो जाता है, इसी प्रकार जब जीव हाथी का शरीर धारण करता है तो वह (आत्मा) उतने बड़े शरीर में व्याप्त रहता है और जब कुथुए का शरीर धारण करता है तो उसके छोटे-से शरीर में (आत्मा) व्याप्त रहता है / इस प्रकार केवल छोटे-बड़े शरीर का ही अन्तर रहता है जीव में कुछ भी अन्तर नहीं है / सभी जीव समान रूप से असंख्यात प्रदेशों वाले हैं। उन प्रदेशों का संकोच-विस्तार मात्र होता है। चौबीस दण्डकवर्ती जीवों द्वारा कृत पापकर्म दुःखरूप और उसको निर्जरा सुखरूप--- 3. नेरइयाणं भते ! पावे कम्मे जे य कडे, जे य कन्जति, जे य कज्जिस्सति सम्वे से दुक्खे ? जे निज्जिणे हंता, गोयमा ! नेरइयाणं पावे कम्मे जाव सुहे। [3 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों द्वारा जो पापकर्म किया गया है, जो किया जाता है और जो किया जाएगा, क्या वह सब दुःखरूप है और उनके द्वारा) जिसकी निर्जरा की गई है, क्या वह सुख [3 उ.] हाँ, गौतम ! नैरयिकों द्वारा जो पापकर्म किया गया है, यावत् वह सब दुःखरूप है और (उनके द्वारा) जिन (पापकर्मों) की निर्जरा की गई है, वह सब सुखरूप है। 4. एवं जाव वेमाणियाणं। [4] इस प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त चौबीस दण्डकों में जान लेना चाहिए। विवेचन-चौबीस दण्डकवर्ती जीवों द्वारा कृत पापकर्म दुःखरूप और उसकी निर्जरा सुखरूप—प्रस्तुत सूत्रद्वय में नैरयिकों से वैमानिक-पर्यन्त सब जीवों के लिए पापकर्म दुख :रूप और उसकी निर्जरा सुखरूप बताई गई है। निष्कर्ष-पापकर्म संसार-परिभ्रमण का कारण होने से दुःखरूप है, और पापकर्मों की निर्जरा सुखस्वरूप मोक्ष का हेतु होने से सुखरूप है।' सुख और दुःख के कारण को यहाँ सुख-दुःख कहा गया है / संज्ञाओं के दस प्रकार-चौबीस दण्डकों में कति णं भते! सण्णाश्रो पण्णत्तामो? 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 313, (ख) भगवती (हिन्दी-विवेशन) भा. 3, पृ. 1185 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org