________________ 176] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! दस सण्णासो पण्णत्ताओ, तं जहा--प्राहारसण्णा 1 भयसण्णा 2 मेहुणसण्णा 3 परिग्गहसण्णा 4 कोहसण्णा 5 माणसण्णा 6 मायासण्णा 7 लोभसण्णा 8 पोहसण्णा लोगसण्णा 10 / [5 प्र.] भगवन् ! संज्ञाएँ कितने प्रकार की कही गई हैं ? [5 उ.] गौतम ! संज्ञाएँ दस प्रकार की कही गई हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) आहारसंज्ञा, (2) भयसंज्ञा, (3) मैथुनसंज्ञा, (4) परिग्रहसंज्ञा, (5) क्रोधसंज्ञा, (6) मानसंज्ञा, (7) मायासंज्ञा, (8) लोभसंज्ञा, (6) लोकसंज्ञा और (10) प्रोघसंज्ञा / 6. एवं जाव वेमाणियाणं / [6] वैमानिकपर्यन्त चौबीस दण्डकों में ये दस संज्ञाएँ पाई जाती हैं। विवेचन-संज्ञानों के दस प्रकार : चौबीस दण्डकों में प्रस्तुत पंचम सूत्र में प्राहार संज्ञा आदि 10 प्रकार की संज्ञाएँ चौबीसदण्डकवर्ती जीवों में बताई गई हैं। संज्ञा की परिभाषाएँ-संज्ञान या प्राभोग अर्थात्-एक प्रकार की धुन को या मोहनीयादि कर्मोदय से आहारादि प्राप्ति की इच्छाविशेष को संज्ञा कहते हैं, अथवा जीव का आहारादि विषयक चिन्तन या मानसिक ज्ञान भी संज्ञा है। अथवा जिस क्रिया से जीव की इच्छा जानी जाए. उस क्रिया को भी संज्ञा कहते हैं। संज्ञाओं की व्याख्या--(१) प्राहारसंज्ञा-क्षुधावेदनीय के उदय से कवलादि अाहारार्थ पुद्गल-ग्रहणेच्छा; (2) भय संज्ञा–भयमोहनीय के उदय से व्याकुलचित पुरुष का भयभीत होना, कांपना, रोमांचित होना, घबराना आदि; (3) मैथुनसंज्ञा-पुरुषवेदादि (नोकषायरूप वेदमोहनीय) के उदय से, स्त्री आदि के अंगों को छुने, देखने आदि की तथा तज्जनित कम्पनादि, जिससे मैथुनेच्छा अभिव्यक्त हो; (4) परिग्रहसंज्ञा--लोभरूप कषायमोहनीय के उदय से आसक्तिपूर्वक्त सचित्त-अचित्तद्रव्यग्रहणेच्छा; (5) क्रोधसंज्ञा-क्रोध के उदय से आवेश, दोष रूप परिणाम एवं नेत्र लाल होना, कांपना, मुह सूखना आदि क्रियाएँ / (6) मानसंज्ञा-मान के उदय से अहंकारादिरूप परिणाम; (7) मायासंज्ञा-माया के उदय से दुर्भावनावश दूसरों को ठगना, धोखा देना आदि; (8) लोभसंज्ञा--लोभके उदय से सचित्त-अचित्तपदार्थ-प्राप्ति की लालसा; (8) अोघसंज्ञा–मतिज्ञानावरण प्रादि के क्षयोपशमसे शब्द और अर्थ का सामान्यज्ञान: अथवा धन ही धन में बिना उपयोग के की गई प्रवत्ति, और (10) लोकसंज्ञा-सामान्य रूप से ज्ञात वस्तू को विशेष रूप से जानना, अथवा लोकरूढि या लोकदृष्टि के अनुसार प्रवृत्ति करना लोकसंज्ञा है / ' ये दसों संज्ञाएँ न्यूनाधिक रूप से सभी छद्मस्थ संसारी जीवों में पाई जाती हैं / नैरयिकों को सतत अनुभव होने वाली दस वेदनाएँ 6. नेरइया दसविहं वेयणं पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा-सीतं उसिणं खुहं पिवासं कंडु परज्झं जरं दाहं भयं सोगं / 1. भगवती, अ. वृत्ति, पत्रांक 314 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org