________________ सप्तम : शतक : उद्देशक-] [ 177 [7] नैरयिक जीव दस प्रकार की वेदना का अनुभव करते हुए रहते हैं। वह इस प्रकार-- (1) शीत, (2) उष्ण, (3) क्षुधा, (4) पिपासा (5) कण्डू (खुजली), (6) पराधीनता, (7) ज्वर, (8) दाह, (6) भय और (10) शोक / विवेचन नैरयिकों को सतत अनुभव होने वाली दस वेदनाएँ-प्रस्तुत सूत्र में शीत आदि दस वेदनाएँ, जो नैरयिकों को प्रत्यक्ष अनुभव में आती हैं, बताई गई हैं। हाथी और कुथए को समान अप्रत्याख्यानिकी क्रिया लगने की प्ररूपणा 8. [1] से नूणं भते ! हथिस्स य कुथुस्स य समा चेव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जति ? हंता, गोयमा ! हस्थिस्स य कुयुस्स य जाव कज्जति / [8-1 प्र] भगवन् क्या वास्तव में, हाथी और कुन्थुए के जीव को अप्रत्याख्यानिकी क्रिया समान लगती है ? [8-1 उ] हाँ, गौतम ! हाथी और कुन्थुए के जीव को अप्रत्याख्यानिकी क्रिया समान लगती है। [2] से केण?णं मते ! एवं बुच्चइ जाव कज्जति ? गोयमा ! प्रदिरति पडुच्च / से तेज? जाव कज्जति / 18-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा प्राप किस कारण से कहते हैं कि हाथी और कुथुए के यावत् क्रिया समान लगती है ? [8-2 उ.] गौतम ! अविरति की अपेक्षा से हाथी और कुन्थुए के जीव को अप्रत्याख्यानिकी क्रिया समान लगती है। विवेचन-हाथी और कुथुए को समान अप्रत्याख्यानिकी क्रिया लगने की प्ररूपणा-प्रस्तुत सूत्र में हाथी और कुन्थुए को अविरति की अपेक्षा से अप्रत्याख्यानिकी क्रिया समान रूप से लगने की / प्ररूपणा की गई है, क्योंकि अविरति का सद्भाव दोनों में समान है। प्राधाकमसेवी साधु को कर्मबन्धादि-निरूपणा ___. प्राहाकम्मं णं भंते ! भुजमाणे कि बंधति ? कि पकरेति ? कि चिणाति ? कि उवचिणाति ? __ एवं जहा पढमे सते नवमे उद्दसए (सू. 26) तहा भाणियन्वं जाव सासते पंडिते, पंडितत्तं असासयं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० ! ॥सत्तमसए : अट्ठमो उद्देसनो समतो॥ [1 प्र.] भगवन् ! आधाकर्म (आहारादि) का उपयोग करने वाला साधु क्या बांधता है ? क्या करता है ? किसका चय करता है और किसका उपचय करता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org