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________________ 178] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [9 उ.] गौतम ! प्राधाकर्म अाहारादि का उपभोग करने वाला साध प्रायुष्यकर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मों की प्रकृतियों को, यदि वे शिथिल बन्ध से बंधी हुई हों तो, गाढ बंध वाली करता है, यावत् बार-बार संसार-परिभ्रमण करता है / इस विषय का सारा वर्णन प्रथम शतक के नौवें उद्देशक (सू. 26) में कहे अनुसार-यावत् 'पण्डित शाश्वत है और पण्डितत्व अशाश्वत है' यहाँ तक कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन–प्राधाकर्मसेवी साधु को कर्मबन्धादि निरूपण-प्रस्तुत सूत्र में प्रथम शतक के 8 वें उद्देशक के अतिदेशपूर्वक प्राधाकर्मदोषसेवन का दुष्फल बताया गया है / प्राधाकर्म-पाहार, पानी आदि कोई भी पदार्थ जो साधु के निमित्त बनाए जाएँ, वे प्राधाकर्मदोष युक्त हैं / इसका विशेष विवरण प्रथम शतक के नौवें उद्देशक से जान लेना चाहिए / // सप्तम शतक : अष्टम उद्देशक समाप्त / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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