________________ नवमो उद्देसओ : 'असंवुड' नवम उद्देशक : 'असंवृत' असंवृत अनगार द्वारा इहगत बाापुद्गलग्रहरणपूर्वक विकुर्वरण-सामर्थ्य-निरूपण 1. प्रसंवडे णं भंते ! अणगारे बाहिरए पोग्गले अपरियादिइत्ता पभू एगवणं एगरूवं विउवित्तए? णो इण? सम?। [1 प्र.] भगवन् ! क्या असंवृत (संवररहित = प्रमत्त) अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना, एक वर्ण वाले एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? [1 उ.] (गौतम !) यह अर्थ समर्थ नहीं है। 2. असंवुडे णं भंते ! अणगारे बाहिरए पोग्गले परियादिइत्ता पभू एगवणं एगरूवं जाव हंता, पभू / [2 प्र.] भगवन् ! क्या असंवृत अनगार बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके एक वर्ण वाले एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? [2 उ.] हाँ, गौतम ! वह ऐसा करने में समर्थ है / 3. से भंते ! कि इहगए पोग्गले परियादिइत्ता विउन्धइ ? तत्थगए पोग्गले परियादिवत्ता विउब्वइ ? अन्नत्थगए पोमाले परियादिइत्ता विउवइ ? गोयमा ! इहगए पोग्गले परियादिइत्ता विकुम्वइ, नो तत्थगए पोग्गले परियादिइत्ता विकुब्बई, नो प्रनत्थगए पोग्गले जाव विकुम्वइ / [3 प्र.] भगवन् ! वह असंवृत अनगार यहाँ (मनुष्य-लोक में) रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है, या वहां रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्बणा करता है, अथवा अन्यत्र रहे पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है ? __ [3 उ.] गौतम ! वह यहाँ (मनुष्यलोक में) रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है, किन्तु न तो वहाँ रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है, और न ही अन्यत्र रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है। 4. एवं एगवण्णं प्रणेगरूवं चउभंगो जहा छट्ठसए नवमे उद्देसए (सू. 5) तहा इहावि भाणियव्वं / नवरं अणगारे इहगए चेव पोग्गले परियादिइत्ता विकुम्वइ / सेसं तं चैव जाव लुक्खपोग्गलं निद्धपोग्गलत्ताए परिणामेत्तए ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org