________________ 556 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र श्रमणों के अनुरूप अवग्रह ग्रहण करके संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण कर रहे थे। विवेचन-श्रावस्ती में जमालि और चम्पा में भगवान महावीर-प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 88 से 61 तक) में जमालि का भगवान् महावीर से पृथक् विहार करके श्रावस्ती में पहुँचने का तथा भगवान् महावीर का चम्पा में पधारने का वर्णन है / ' विशेषार्थ-प्रहापडिरूवं-मुनियों के कल्प के अनुरूप / उग्गह-अवग्रह- यथापर्याप्त आवास स्थान तथा पट्ट-चौकी आदि की याचना करके ग्रहण करना / जमालि अनगार के शरीर में रोगातंक को उत्पत्ति 92. लए णं तस्स जमालिस्स अणगारस्स तेहि अरसेहि य विरसेहि य अंतेहि य पतेहि य लहेहि य तुच्छेहि य कालाइक्कतेहि य पमाणाइक्कतेहि य सीतएहि य पाण-भोयणेहि अन्नया कयाइ सरीरगंसि विउले रोगातके पाउन्भूए-उज्जले तिउले पगाढे कक्कसे कडुए चंडे दुक्खे दुग्गे तिब्वे दुरहियासे, पित्तज्जरपरिगतसरीरे दाहवक्कतिए यावि विहरइ। [12] उस समय जमालि अनगार को अरस, विरस, अन्त, प्रान्त, रूक्ष और तुच्छ तथा कालातिक्रान्त और प्रमाणातिकान्त एवं ठंडे पान (पेय पदार्थो) और भोजनों (भोज्य पदार्थो) (के सेवन) से एक बार शरीर में विपुल रोगातंक उत्पन्न हो गया / वह रोग उज्ज्वल. विपुल, प्रगाढ़, कर्कश, कटुक, चण्ड, दुःख रूप, दुर्ग (कष्टसाध्य), तीव्र और दुःसह था। उसका शरीर पित्तज्वर से व्याप्त होने के कारण दाह से युक्त हो रहा था। विवेचन-जमालि, महारोगपीड़ित-जमालि अनगार को रूक्ष, अन्त, प्रान्त, नीरस आदि प्रतिकल माहार-पानी करने के कारण महारोग उत्पन्न हो गया, जिसके फलस्वरूप उसके सारे शरीर में जलन एवं दाहज्वर के कारण असह्य पीड़ा हो उठी। कठिन शब्दों का भावार्थ-अरसेहि-हींग आदि के बघार विना का, विना रसवाले बेस्वाद / विरसेहि-पुराने होने से खराब रस वाले--विकृत रस वाले। अन्तेहिं अरस होने से सब धान्यों से रट्टी (अन्तिम) धान्य-वाल, चने आदि। पंतेहि-बचा-खचा बासी आहार / लहेहि = रूक्ष / तुच्छेहि-थोड़े-से, या हल्की किस्म के / कालाइक्कतेहिः दो अर्थ-जिसका काल व्यतीत हो चुका हो ऐसा आहार, अथवा भूख-प्यास का समय बीत जाने पर किया गया आहार / पमाणाइक्कतेहि-भूखप्यास की मात्रा के अनुपात में जो आहार न हो। सीतएहि ठंडा पाहार। विउले--विपुल समस्त शरीर में व्याप्त / पाउन्भूए-उत्पन्न हुआ / रोगातके--रोग--व्याधि और आतंक-पीडाकारी या उपद्रव / उज्जले-उत्कट ज्वलन-(दाह) कारक, या स्पष्ट / पगाढे-तीव या प्रबल / कक्कसेकठोर या अनिष्टकारी / चंडे --रौद्र-भयंकर / दुक्खे--दुःखरूप / दुग्गे-कष्टसाध्य / दुरहियासे--- 1. वियाहपण्णत्तिसूतं (मूलपाठ-टिप्पण), भा० 1, पृ० 476 2 भगवती सुत्र, तृतीय खण्ड (पं० भगवानदास दोशी), पृ० 179 3. वियाहपश्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 1, पृ. 476 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org