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________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] [557 दुस्सह / पित्तज्जरपरिगयसरीरे-पित्तज्वर से व्याप्त शरीर वाला। दाहवक्कतिए-दाह (जलन) उत्पन्न हुअा।' रुग्ण जमालि को शय्यासंस्तारक के निमित्त से सिद्धान्त-विरुद्ध-स्फुरणा और प्ररूपणा 93. तए णं से जमाली प्रणगारे वेयणाए अभिभूए समाणे समणे णिगंथे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं क्यासी-तुम्भे णं देवाणुप्पिया ! मम सेज्जासंथारगं संथरेह / 63] वेदना से पीड़ित जमालि अनगार ने तब (अपने साथी) श्रमण-निर्गन्थों को बुला कर उनसे कहा-हे देवानुप्रियो ! मेरे सोने (शयन) के लिए तुम संस्तारक (बिछौना) बिछा दो। 94. तए णं ते समणा जिग्गंथा जमालिस्स अणगारस्स एयमझें विणएणं पडिसुति, पडिसुणेता जमालिस्स अणगारस्त सेज्जासंथारगं संथरेंति / [4] तब श्रमण-निर्ग्रन्थों ने जमालि अन गार को यह बात विनय-पूर्वक स्वीकार की और जमालि अनगार के लिए बिछौना बिछाने लगे। 95. तए णं से जमाली अणगारे बलियतरं वेदणाए अभिभूए समाणे दोच्चं पि समणे निमाथे सद्दावेइ, सहावित्ता दोच्चं पि एवं वयासी ममं देवाणुप्पिया ! सेज्जासंथारए कि कडे ? कज्जा ? तए ण ते समणा निग्गंथा जमालि अणगारं एवं वयासी-जो खलु देवाणुपियाणं सेज्जासंथारए कडे, कज्जति। [65] किन्तु जमालि अनगार प्रबलतर वेदना से पीडित थे, इसलिए उन्होंने दुबारा फिर श्रमण-निर्गन्थों को बुलाया और उनसे इस प्रकार पूछा--देवानप्रियो ! क्या मेरे सोने के लिए संस्तारक (बिछौना) बिछा दिया या बिछा रहे हो? इसके उत्तर में श्रमण-निर्गन्थों ने जमालि अनगार से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय के सोने के लिए बिछौना (अभी तक) बिछा नहीं, बिछाया जा रहा है। 96. तए णं तस्स जमालिस्स अणगारस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-जं णं समणे भगवं महावीरे एवं आइक्खइ जाव एवं परूवेइ–एवं खलु चलमाणे चलिए, उदीरिज्जमाणे उदीरिए जाव निजरिज्जमाणे णिज्जिणे' तं णं मिच्छा, इमं च णं पच्चक्खमेव दीसइ सेज्जासंथारए कज्जमाणे अकडे, संश्ररिज्जमाणे असंथरिए, जम्हा गं सेज्जासंथारए कज्जमाणे अकडे संथरिज्जमाणे असंथरिए तम्हा चलमाणे वि अचलिए जाव निज्जरिज्जमाणे वि अणिज्जिणे / एवं संपेहेइ; एवं संपेहेत्ता समणे निग्गंथे सद्दावेइ; समणे निग्गंथे सद्दावेत्ता एवं बयासी-जं णं देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे एवं आइक्खइ जाव परूवेइ--एवं खलु चलमाणे चलिए तं चेव सव्वं जाव णिज्जरिज्जमाणे अणिज्जिण्णे। [96] श्रमणों को यह बात सुनने पर जमालि अनगार के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय (निश्चयात्मक विचार) यावत् उत्पन्न हुआ कि श्रमण भगवान् महावीर जो इस प्रकार कहते हैं, यावत् 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 486 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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