________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] संभावना देख कर स्वतन्त्र विहार की अनुज्ञा नहीं दी गई। किन्तु इस बात की अवहेलना करके जमालि अनगार भगवान् महावीर से पृथक् विहार करने लगे।' विशेषार्थ---बहिया जणवयविहारं-बाहर के जनपदों में विहार / णो आढाइ-आदर (महत्त्व) नहीं किया / णो परिजागाइ- अच्छा नहीं जाना या स्वीकार नहीं किया 1 तुसिणीए संचिट्ठइ -- मौन रहे / अंतियाओ - पास से / सद्धि-साथ / जमालि अनगार का श्रावस्ती में और भगवान का चंपा में विहरण 88. तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी नाम गयरी होत्था। वण्णओ। कोटुए चेइए। वण्णओ। जाव वणसंडस्स। [88J उस काल उस समय में श्रावस्ती नाम की नगरी थी। उसका वर्णन (जान लेना चाहिए) वहाँ कोष्ठक नामक उद्यान था, उसका भी वर्णन, यावत् वनखण्ड तक (जान लेना चाहिए)। 89. तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नबरी होत्था। वणओ। पुण्णभद्दे चेइए। वण्णश्रो / जाव पुढविसिलावट्टयो / [6] उस काल और उस समय में चम्पा नाम की नगरी थी। उसका वर्णन (प्रोपपातिक सूत्र से जान लेना चाहिए / ) वहाँ पूर्णभद्र नामक चैत्य था। उसका वर्णन (समझ लेना चाहिए) यावत् उसमें पृथ्वीशिलापट्ट था। 90. तए णं से जमाली अणगारे अन्नया कयाइ पंचहि अणगारसहि सद्धि संपरिबुडे पुवाणुपुचि चरभाणे गामाणुगाम दूइज्जमाणे जेणेव सावत्थी नयरी जेणेव कोट्टए चेइए तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं उरिगाहति, अहापडिरूवं उम्गहं उग्गिहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहर। [6] एक वार वह जमालि अनगार, पांच सौ अनगारों के साथ संपरिवृत होकर अनुक्रम से विचरण करता हया और ग्रामानुग्राम विहार करता हा श्रावस्ती नगरी में जहाँ कोष्ठक उद्यान था, वहाँ आया और मुनियों के कल्प के अनुरूप अवग्रह ग्रहण करके संयम और तप के द्वारा प्रात्मा को भावित करता हुमा विचरण करने लगा। ___ 91. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ पुग्वाणुपुयि चरमाणे जाव सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव चंपा नगरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छद; तेणेव उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिएहति, अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिमिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ / [11] उधर श्रमण भगवान् महावीर भी एक बार अनुक्रम से विचरण करते हुए, यावत् सुखपूर्वक विहार करते हुए, जहाँ चम्पानगरी थी और पूर्णभद्र नामक चैत्य था, वहाँ पधारे; तथा 1. 'भाविदोषत्वेनोपेक्षणीयत्वादस्येति / ' -भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 486 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 486, (ख) भगवती. भा. 4 (10 घेवरचन्दजी), पृ. 1753 3. देखो "उववाइअसतं' में नगरी और पूर्णभद्र चैत्य का वर्णन। ---उव. पत्र 1-1 और 4-2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org