________________ 554 1 ( च्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र भगवान् को बिना प्राज्ञा के जमालि का पृथक् विहार 83. तए णं से जमाली अणगारे अन्नया कयाई जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी इच्छामि णं भंते ! तुम्भेहि अन्भणुण्णाए समागे पंचहि अणगारसहिं सद्धि बहिया जणवयविहारं विहरित्तए। [83] तदनन्तर एक दिन जमालि अनगार श्रमण भगवान् महावीर के पास आए और भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार बोले-भगवन् ! आपकी आज्ञा प्राप्त होने पर मैं पांच सौ अनगारों के साथ इस जनपद से बाहर (अन्य जनपदों में) विहार करना चाहता हूँ। 84. तए णं से समणे भगवं महावीरे जमालिस्स अणगारस्स एयमढें णो आढाइ, णो परिजाणाइ, तुसिणीए संचिट्ठइ / [84] यह सुन कर श्रमण भगवान् महावीर ने जमालि अनगार की इस बात (मांग) को आदर (महत्त्व) नहीं दिया, न स्वीकार किया / वे मौन रहे। 85. तए णं से जमाली अणगारे समणं भगवं महावीरं दोच्चं पितच्चं पि एवं क्यासी-- इच्छामि गं भंते ! तुब्भेहिं अब्भगुण्णाए समाणे पंचहि अणगारसहिं सद्धि जाव विहरित्तए। [85] तब जमालि अनगार ने श्रमण भगवान महावीर से दूसरी बार और तीसरी बार भी इसी प्रकार कहा --भंते ! आपकी आज्ञा मिल जाए तो मैं पांच सौ अनगारों के साथ अन्य जनपदों में विहार करना चाहता हूँ। 86. तए गं समणे भगवं महावीरे जमालिस्स अणगारस्स दोच्चं पि तच्च पि एयमढ़णो आढाइ जाव तुसिणीए संचिट्ठइ / [86] जमालि अनगार के दूसरी बार और तीसरी बार भी वही बात कहने पर श्रमण भगवान् महावीर ने इस बात का आदर नहीं किया, यावत् वे मौन रहे / 87. तए णं से जमाली अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ बहुसालाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता पंचहि अणगारसहिं सद्धि बहिया जणयविहारं विहर। [7] तब (ऐसी स्थिति में) जमालि अनगार ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दननमस्कार किया और फिर उनके पास से बहुशालक उद्यान से निकला और फिर वह पांच सौ अनगारों के साथ बाहर के (अन्य) जनपदों में विचरण करने लगा। विवेचन--गुरु-आज्ञा विना जमालि अनगार का विचरण—प्रस्तुत 5 सूत्रों (सू. 83 से 87 तक) के वर्णन से प्रतीत होता है कि जमालि अनगार द्वारा पांच-सौ अनगारों को लेकर सर्वत्र विचरण को महत्त्वाकांक्षा एवं सर्वज्ञ-सर्वदर्शी भगवान् द्वारा उसके स्वतन्त्र विचरण के पीछे अहंकार, महत्त्वाकांक्षा एवं अधैर्य के प्रादुर्भाव होने की और भविष्य में देव-गुरु आदि के विरोधी वन जाने की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org