________________ नवम शतक : उद्देशक-३३ ] जमालि द्वारा प्राभूषणादि के उतारे जाने तथा माता द्वारा संयम में पुरुषार्थ करने की प्रेरणा का वर्णन किया गया है / ' कठिन पदों के विशेषार्थ-नयणमालासहस्सेहि पिच्छिज्जमाणे-हजारों नेत्रों द्वारा देखा जाता हुमा / संवुड्ढे-संवर्धित हुआ, बड़ा हुआ। पंक-रएणं-कीचड़ के लेशमात्र से / काम-रएणंकामरूप रज से या काम के अंशमात्र से अथवा कामानुराग से / सीसभिक्खं-शिष्यरूप भिक्षा / ओमयइ---उतारता है / घडियव्वं संयम पालन की चेष्टा करना / जइयन्वं--संयम में यत्न करना / परक्कमियन्वं--पराक्रम करना। णो पमायेतव्वं--प्रमाद न करना / विणिम्मुयमाणी-विमोचन करती हुई / भोगेहि---गन्ध-रस-स्पर्शों में / कामेहि शब्दादि रूप कामों में / 82. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति, करित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता एवं जहा उसभदत्तो (सु. 16) तहेव पव्वइओ, नवरं पंचहिं पुरिससएहि सद्धि तहेव सन्वं जाव सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जेत्ता ब्रहहिं चउत्थ-छट्ठ-ऽट्ठम जाव मासद्धमासखमणेहि विचित्तेहि तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे विहरइ / [82] इसके पश्चात् जमालिकुमार ने स्वयमेव पंचमुष्टिक लोच किया, फिर श्रमण भगवान् महावीर की सेवा में उपस्थित हुआ और ऋषभदत्त ब्राह्मण (सू. 16 में वणित) की तरह भगवान् के पास प्रव्रज्या अंगीकार की। विशेषता यह है कि जमालि क्षत्रियकुमार ने 500 पुरुषों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की, शेष सब वर्णन पूर्ववत् है, यावत् जमालि अनगार ने फिर सामायिक प्रादि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और बहुत-से उपवास, बेला (छ8), तेला (अट्ठम), यावत् अर्द्धमास, मासखमण (मासिक) इत्यादि विचित्र तपःकर्मों से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरण करने लगा। - जमालिकुमार की प्रव्रज्या, अध्ययन और तपस्या जमालिकुमार ने स्वयं लोच किया, भगवान् से अपनी विरक्त दशा निवेदन करके पांच सौ पुरुषों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की। प्रव्रज्याग्रहण के बाद जमालि अगनार ने 11 अंगशास्त्रों का अध्ययन तथा अनेक प्रकार का तपश्चरण किया, जिसका उल्लेख प्रस्तुत सूत्र में है / 4 / 'पंचमुद्वियं' आदि पदों का विशेषार्थ-पंचमुट्टियं - पांचों अंगुलियों की मुट्ठी बांध कर लोच करना पंचमुष्टिक लोच कहलाता है / अप्पाणं भावेमाणे-आत्मभावों में रमण करता हुआ अथवा आत्मचिन्तन-यात्मभावना करता हुया / तवोकम्मेहि-तपःकर्मों से- तपश्चर्याओं से / .. ...... -... 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं [मू. पा. टिप्पण} भा. 1, पृ. 474-475 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 484 3. 'जहा उसमदत्तो' द्वारा सूचित पाठ-तणामेव उवागच्छद, उवागजिछत्ता समणं भगवं महाबोरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, 2 बंबइ नमसइ, बंदिता नमंसित्ता एवं वयासी-आलित गंभंते ! लोए इत्यादि / --श. 9, उ. 33, सू. 16 4. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 1, पृ. 475 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org