________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२] [279 होते हैं, उनमें से द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय जीवों में सास्वादनसम्यग्दर्शन के सद्भाव में पूर्व के दो ज्ञान, और उसके अभाव में प्रथम के दो अज्ञान पाए जाते हैं। केवलियों में सिर्फ एक केवलज्ञान होता है / जिह्वन्द्रियलब्धिवाले जीवों में चार ज्ञान या तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं। जिह्वन्द्रियलब्धिरहित जीव ज्ञानी भी होते हैं, अज्ञानी भी। जो ज्ञानी हैं, उनमें एकमात्र केवलज्ञान और जो अज्ञानी हैं, वे एकेन्द्रिय हैं, उनमें (विभंगज्ञान के सिवाय) दो अज्ञान नियमतः होते हैं। एकेन्द्रिय जीवों में सास्वादनसम्यग्दर्शन का अभाव होने से उनमें ज्ञान नहीं होता। स्पर्शेन्द्रियलब्धि और अलब्धिवाले जीवों का कथन, इन्द्रियलब्धि और अलब्धिवाले जीवों की तरह करना चाहिए / अर्थात् लब्धिमान् जीवों में चार ज्ञान (केवलज्ञान के सिवाय) और तीन अज्ञान भजना से होते हैं और अलब्धिमान् जीव केवली होते हैं, उनमें एकमात्र केवलज्ञान होता है।' दसमें उपयोगद्वार से लेकर पन्द्रहवें प्राहारकद्वार तक के जीवों में ज्ञान और अज्ञान की प्ररूपणा 118. सागारोवउत्ता णं भंते ! जीवा कि नाणी, अण्णाणी ? पंच नाणाई, तिणि अण्णाणाई भयणाए / [118 प्र.] भगवन् ! साकारोपयोग-युक्त जीव ज्ञानी होते हैं या अज्ञानी ? [118 उ.] गौतम ! वे ज्ञानी भी होते हैं, अज्ञानी भी होते हैं, जो ज्ञानी होते हैं, उनमें पांच ज्ञान भजना से पाए जाते हैं और जो अज्ञानी होते हैं, उनमें तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं। 116. प्राभिणिबोहियनाणसाकारोवउत्ता णं भंते ! * ? चत्तारि णाणाई भयणाए। [119 प्र.) भगवन् ! आभिनिबोधिक-ज्ञानसाकारोपयोगयुक्त जीव ज्ञानी होते हैं या अज्ञानी ? [116 उ.] गौतम ! उनमें चार ज्ञान भजना से पाए जाते हैं। 120. एवं सुतमाणसागारोवउत्ता वि।। [120] श्रुतज्ञान-साकारोपयोग-युक्त जीवों का कथन भी इसी प्रकार जानना चाहिए। 121. ओहिनाणसागारोवउत्ता जहा प्रोहिनाणलधिया (सु. 64 [1]) / [121] अवधिज्ञान-साकारोपयोग-युक्त जीवों का कथन अवधिज्ञानलब्धिमान् जीवों के समान (सू. 64-1 के अनुसार) करना चाहिए। 122. मणपज्जवनाणसागारोवजुत्ता जहा मणपज्जवनाणलधिया (सु. 65 [1]) / _ [122] मनःपर्यवज्ञान-साकारोपयोग-युक्त जीवों का कथन मनःपर्यवज्ञानलब्धिमान् जीवों के समान (सू. 65-1 के अनुसार) करना चाहिए / 123. केवलनाणसागारोवजुत्ता जहा केवलनाणलधिया (सु. 66 [1]) / [123] केवलज्ञान-साकारोपयोगयुक्त जीवों का कथन केवलज्ञानलब्धिमान् जीवों के समान (सू. 66.1 के अनुसार) समझना चाहिए / (अर्थात्-उनमें एकमात्र केवलज्ञान ही पाया जाता है।) 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 350 से 354 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org