________________ 494] [व्याख्यानज्ञप्तिसूत्र चाहिए / अन्तर इतना ही है, कि नैरयिक जीव सात नरकपृथ्वियों में उत्पन्न होते हैं, जबकि तिर्यञ्चजीव एकेन्द्रियादि पाँच स्थानों में उत्पन्न होते हैं। इसलिए भंगों की संख्या में भिन्नता है / यह बुद्धिमानों को स्वयं ऊहापोह करके जान लेना चाहिए / यद्यपि एकेन्द्रिय जीव (वनस्पति व निगोद की अपेक्षा से) अनन्त उत्पन्न होते हैं, किन्तु उपर्युक्त प्रवेशनक का लक्षण असंख्यात तक ही घटित हो सकता है / इसलिए असंख्यात तक ही प्रवेशनक कहे गये हैं।' शंका-समाधान-मूलपाठ में 'एक जीव एकेन्द्रियों में उत्पन्न होता है, यह बतलाया गया, किन्तु सिद्धान्तानुसार एक जीव एकेन्द्रियों में कदापि उत्पन्न नहीं होता, वहाँ (वनस्पतिकाय की अपेक्षा तो) प्रतिसमय अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं, ऐसी स्थिति में उपर्युक्त शास्त्रवचन के साथ कैसे संगति हो सकती है ? इसका समाधान वृत्तिकार यों करते हैं—विजातीय देवादि भव से निकल कर जो वहाँ (एकेन्द्रिय भव) में उत्पन्न होता है, उस एक जीव की अपेक्षा से एकेन्द्रिय में एक जीव का प्रवेशनक सम्भव है / वास्तव में प्रवेशनक का अर्थ ही यह है कि विजातीय देवादिभव से निकल कर विजातीय भव में उत्पन्न होना / सजातीय जीव सजातीय में उत्पन्न हो, वह प्रवेशनक नहीं कहलाता, क्योंकि वह (सजातीय) तो एकेन्द्रिय जाति (सजातीय) में प्रविष्ट है ही। अर्थात्-एकेन्द्रिय जीव मर कर एकेन्द्रिय में उत्पन्न हो, वह प्रवेशनक की कोटि में नहीं पाता। और जो अनन्त उत्पन्न होते हैं, वे तो एकेन्द्रिय में से ही हैं। एक और दो तिर्यञ्चयोनिक जीवों का प्रवेशनक---एक जीव अनुक्रम से एकेन्द्रियादि पाँच स्थानों में उत्पन्न हो तो उसके पाँच भंग होते हैं। दो जीव भी एक-एक स्थान में साथ उत्पन्न हों तो उनके भी पाँच भंग ही होते हैं / और द्विकसंयोगी 10 भंग होते हैं / उत्कृष्ट तिर्यञ्चयोनिक-प्रवेशनक प्ररूपणा 33. उक्कोसा भंते ! तिरिक्खजोगिया० पुच्छा / गंग या ! सब्वे वि ताव एगेंविएसु वा होज्जा। अहवा एगिदिएसु वा बेइंदिएसु वा होज्जा / एवं जहा नेरतिया चारिया तहा तिरिक्खजोणिया वि चारेयव्वा / एगिदिया अमुयंतेसु दुयासंजोगो तियासंजोगो चउक्कसंजोगो पंचसंजोगो उवउज्जिऊण भाणियव्वो जाव अहवा एगिदिएसु वा बेइंदिय जाव पंचिदिएसु वा होज्जा / |33 प्र.] भगवन् ! उत्कृष्ट तिर्यञ्चयोनिक-प्रवेशनक के विषय में पृच्छा / [33 उ.] गांगेय ! ये सभी एकेन्द्रियों में होते हैं / अथवा एकेन्द्रिय और द्वीन्द्रियों में होते हैं। जिस प्रकार रयिक जीवों में संचार किया गया है, उसी प्रकार तिर्यञ्चयोनिक-प्रवेशनक के विषय में भी संचार करना चाहिए / एकेन्द्रिय जीवों को न छोड़ते हुए द्विकसंयोगी, त्रिकसंयोगी, चतु:संयोगी और पंचसंयोगी भंग उपयोगपूर्वक कहने चाहिए; यावत् अथवा एकेन्द्रिय जीवों में द्वीन्द्रियों में, यावत् पंचेन्द्रियों में होते हैं। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 451. 2. बही, अ. वत्ति, पत्र 451. 3. भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. 4, पृ. 1670. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org