________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 4] [337 61. एवं जाव लुक्खफासपज्जवेहिं / [61] इसी प्रकार (शेष वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श के) यावत् रूक्ष स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा भी पूर्ववत् कथन करना चाहिए। विवेचन-वर्णादि पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्मादि निरूपण-जीव-प्रदेश अमूर्त-अरूपी होते हैं, इसलिए उनमें कालादि वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्याय नहीं होते, परन्तु शरीर-विशिष्ट जीव का ग्रहण होने से शरीर के वर्णादि की अपेक्षा सामान्य एवं विशिष्ट जीव में कृत-युग्मादि चारों प्रकार की राशियों का व्यवहार हो सकता है। यहाँ सिद्ध-जीव के विषय में कृतयुग्मादि प्रश्न का निषेध किया गया है, उसका कारण यह है कि सिद्ध अमूर्त-अरूपी हैं। अतएव उनमें वर्णादि चारों होते ही नहीं हैं / ' जीव, चौवीस दण्डकों और सिद्धों में ज्ञान-प्रज्ञान-दर्शनपर्यायों की अपेक्षा एकत्वबहुत्वदृष्टि से कृतयुग्मादि प्ररूपरणा 62. जोवे णं भंते ! प्राभिणिबोहियनाणपज्जवेहि कि कडजुम्मे पुच्छा / गोयमा ! सिय कडजुम्मे जाव सिय कलियोगे। [62 प्र.] भगवन् ! (एक) जीव आभिनिबोधिकज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्म है ? इत्यादि प्रश्न / [62 उ.] गौतम ! वह कदाचित् कृतयुग्म है, यावत् कदाचित् कल्योज है / 63. एवं एगिदियवज्ज जाव वेमाणिए। [63] इसी प्रकार एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत् वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए / 64. जीवा णं भंते ! आभिणिबोहियणाणपज्जवेहि० पुच्छा। गोयमा ! प्रोधादेसेणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलियोगा, विहाणादेसेणं कउजुम्मा वि जाव कलियोगा वि। ___ [64 प्र.] भगवन् ! (बहुत) जीव आभिनिबोधिकज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्म हैं ? इत्यादि प्रश्न / [64 उ.] गौतम ! अोघादेश से वे कदाचित् कृतयुग्म हैं, यावत् कदाचित् कल्योज हैं। विधानादेश से कृतयुग्म भी हैं, यावत् कल्योज भी हैं। 65. एवं एगिदियवजं जाव वेमाणिया। [65] इसी प्रकार एकेन्द्रिय को छोड़ कर यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए। 66. एवं सुयनाणपज्जवेहि वि। [66] इसी प्रकार श्रुतज्ञान के पर्यायों को अपेक्षा भी कथन करना चाहिए / 1. भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 876 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org