________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२ [251 किन्तु यहाँ छद्मस्थ का विशेष अर्थ है-अवधिज्ञान आदि विशिष्ट ज्ञानरहित; क्योंकि विशिष्ट अवधिज्ञान धर्मास्तिकाय आदि को अमूर्त होने से नहीं जानता-देखता, किन्तु परमाणु आदि जो मूर्त हैं, उन्हें वह जान-देख सकता है, क्योंकि विशिष्ट अवधिज्ञान का विषय सर्व मूर्तद्रव्य हैं / यदि यह शंका की जाए कि ऐसा छमस्थ भी परमाणु आदि को कथंचित् जानता है, सर्वभाव से (समस्त पर्यायों से) नहीं जानता-देखता, जबकि मूलपाठ में कहा गया है सर्वभाव से नहीं जानतादेखता / इसका समाधान यह है कि यदि छद्मस्थ का ऐसा अर्थ किया जाएगा, तब तो छद्मस्थ के लिए सर्वभावेत अज्ञेय दस संख्या का नियम नहीं रहेगा, क्योंकि ऐसा छमस्थ घटादि पदार्थों को भी अनन्त पर्यायरूप से जानने में असमर्थ है। अतः 'सव्वभावेणं' (सर्वभाव से) का अर्थ साक्षात् (प्रत्यक्ष) करने से इस सूत्र का अर्थ संगत होगा कि अवधि आदि विशिष्टज्ञान-रहित छद्मस्थ, धर्मास्तिकाय आदि दस वस्तुओं को प्रत्यक्षरूप से नहीं जानता-देखता। उत्पन्नज्ञान-दर्शनधारक, अरिहन्त जिन-केवली, केवलज्ञान से इन दस को सर्वभावेन अर्थात्-साक्षातरूप से जानते-देखते हैं।' ज्ञान और प्रज्ञान के स्वरूप तथा भेद-प्रभेद का निरूपण 22. कतिविहे गं भंते ! नाणे पण्णते? गोयमा ! पंचविहे नाणे पण्णत्ते, तं जहा-प्राभिणिबोहियनाणे सुयनाणे प्रोहिनाणे मणपज्जवनाणे केवलनाणे। [22 प्र.] भगवन् ! ज्ञान कितने प्रकार का कहा गया है ? [22 उ.] गौतम ! ज्ञान पांच प्रकार का कहा गया है। यथा-(१) आभिनिबोधिकज्ञान, (2) श्रुतज्ञान, (3) अवधिज्ञान, (4) मनःपर्यवज्ञान और (5) केवलज्ञान / 23. [1] से कि तं प्राभिणिबोहियनाणे ? प्राभिणिबोहियनाणे चतुब्बिहे पण्णते, तं जहा---उग्गहो ईहा अवाप्रो धारणा / [23-1 प्र.] भगवन् ! प्राभिनिबोधिकज्ञान कितने प्रकार का (किस रूप का) कहा गया है ? [23-1 उ.] गौतम ! प्राभिनिबोधिकज्ञान चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार-(१) अवग्रह, (2) ईहा, (3) अवाय (अपाय) और (4) धारणा / / [2] एवं जहा रायप्पसेणइए जाणाणं भेदो तहेव इह वि भाणियन्वो जाव से तं केवलनाणे। [23-2] जिस प्रकार राजप्रश्नीय सूत्र में ज्ञानों के भेद कहे हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कहने चाहिए, यावत् 'यह है वह केवलज्ञान'; यहाँ तक कहना चाहिए। 24. अण्णाणे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? / गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते, तं जहा–मइअन्नाणे सुयअन्नाणे विभंगनाणे / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 342 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org