________________ 250] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वे जाति-पाशीविष कहलाते हैं और जो कर्म यानी शाप आदि क्रिया द्वारा प्राणियों का विनाश करते हैं, वे कर्म-पाशीविष कहलाते हैं ! पर्याप्तक तिर्यञ्च-पंचेन्द्रिय और मनुष्य को तपश्चर्या आदि से अथवा अन्य किसी गुण के कारण प्राशीविष-लब्धि प्राप्त हो जाती है / ये जीव प्राशीविष-लब्धि के स्वभाव से शाप दे कर दूसरे का नाश करने की शक्ति पा लेते हैं / आशीविषलब्धि वाले जीव से आठवें देवलोक से आगे उत्पन्न नहीं हो सकते / जिन्होंने पूर्वभव में आशीविषलब्धि का अनुभव किया था, अतः पूर्वानुभूतभाव के कारण वे कर्म-पाशीविष होते हैं / अपर्याप्त अवस्था में ही वे आशीविषयुक्त होते हैं। जाति-पाशीविषयुक्त प्राणियों का विषसामर्थ्य-जाति-प्राशीविष-वाले प्राणियों के विष का जो सामर्थ्य बताया है, वह विषयमात्र है। उसका आशय यह है-जैसे किसी मनुष्य ने अपना शरीर अर्द्ध भरतप्रमाण बनाया हो, उसके पैर में यदि बिच्छू डंक मारे तो उसके मस्तक तक उसका विष चढ़ जाता है। इसी प्रकार भरतप्रमाण, जम्बूद्वीपप्रमाण और ढाईद्वीपप्रमाण का अर्थ समझना चाहिए / छद्मस्थ द्वारा सर्वभावेन ज्ञान के अविषय और केवली द्वारा सर्वभावेन ज्ञान के विषयभूत दस स्थान 20. दस ठाणाई छउमत्थे सवभावेणं न जाणति न पासति, तं जहा-धम्मत्यिकायं 1 अधम्मस्थिकायं 2 अागासस्थिकायं 3 जीवं प्रसरीरपडिबद्धं 4 परमाणपोग्गलं 5 सदं 6 गंधं 7 वातं प्रयं जिणे भविस्सति वा ण वा भविस्सइ (अयं सम्वदुक्खाणं अंतं करेस्सति का न वा करेस्सइ 10 / [20] छद्मस्थ पुरुष इन दस स्थानों (बातों) को सर्वभाव से नहीं जानता और नहीं देखता / वे इस प्रकार हैं-(१) धर्मास्तिकाय, (2) अधर्मास्तिकाय, (3) आकाशास्तिकाय, (4) शरीर से रहित (मुक्त) जीव, (5) परमाणुपुद्गल, (6) शब्द, (7) गन्ध, (8) वायु, (9) यह जीव जिन होगा या नहीं ? तथा (10) यह जीव सभी दुःखों का अन्त करेगा या नहीं ? 21. एयाणि चेव उत्पन्ननाण-दसणधरे अरहा जिणे केवली सब्वभावेणं जाणति पासति, तं जहा—धम्मस्थिकायं 1 जाव करेस्सति वा न वा करेस्सति 10 / [21] इन्हीं दस स्थानों (बातों) को उत्पन्न (केवल) ज्ञान-दर्शन के धारक अरिहन्त-जिनकेवली ही सर्वभाव से जानते और देखते हैं। यथा-धर्मास्तिकाय यावत्-'यह जीव समस्त दुःखों का अन्त करेगा या नहीं?' विवेचन–सर्वभाव (पूर्णरूप) से छास्थ के ज्ञान के प्रविषय और केवली के ज्ञान के विषय रूप दस स्थान--प्रस्तुत दो सूत्रों में से प्रथम सूत्र (सू.२०) में उन दस स्थानों (पदार्थो) के नाम गिनाए गये हैं, जिन्हें छद्मस्थ सर्वभावेन जान और देख नहीं सकता, द्वितीय सूत्र में उन्हीं दस का उल्लेख किया गया है, जिन्हें केवलज्ञानी सर्वभावेन जान और देख सकते हैं / छद्मस्थ का प्रसंगवश विशेष अर्थ-यों तो छद्मस्थ का सामान्य अर्थ है-केवलज्ञानरहित, 1. भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक 341-342 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org