________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२] [249 [16 उ.] गौतम! कल्पोपपन्नक वैमानिकदेव कर्म-प्राशीविष होता है, किन्तु कल्पातीत वैमानिक देव कर्म-आशीविष नहीं होता। 17. जति कप्योवगवेमाणियदेवकम्मासोविसे कि सोधम्मकप्पोव० जाव कम्मासीविसे जाव अच्चुयकप्पोवग जाव कम्मासीविसे ? गोयमा! सोधम्मकप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसे वि जाव सहस्सारकप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासोविसे वि, नो प्राणयकप्पोवग जाव नो अच्चुतकप्पोवगवेमाणियदेव० / [17 प्र.] भगवन् ! यदि कल्पोपपन्नक वैमानिक देव कर्म-आशीविष होता है तो क्या सौधर्मकल्पोपपन्नक वैमानिक देव कर्म-आशीविष होता है, अथवा यावत् अच्युत कल्पोपपन्नक वैमानिक देव कर्म-प्राशीविष होता है ? [17 उ.] गौतम ! सौधर्म-कल्पोपपन्नक वैमानिकदेव यावत् सहस्रार कल्पोपपन्नक वैमानिक देव-पर्यन्त कर्म-नाशीविष होते हैं, परन्तु मानत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्पोपपत्रक वैमानिक देव कर्म-पाशीविष नहीं होता। 18. जदि सोहम्मकप्पोवग जाव कम्मासीविसे कि पज्जत्तसोधम्मकप्पोवगवेमाणिय अपज्जत्तगसोहम्मग? गोयमा ! नो पज्जत्तसोहम्मकप्पोवगवेमाणिय०, अपज्जत्तसोधम्मकप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसे / [18 प्र.] भगवन् ! यदि सौधर्मकल्पोपपन्नक वैमानिक देव कर्म-आशीविष है तो क्या पर्याप्त सौधर्मकल्पोपपन्न वैमानिकदेव कर्म-आशीविष है अथवा अपर्याप्त सौधर्मकल्पोपपन्न वैमानिकदेव कर्म-प्राशीविष है ? __ [18. उ.] गौतम ! पर्याप्त सौधर्मकल्पोपपन्न वैमानिक देव कर्म-आशीविष नहीं, परन्तु अपर्याप्त सौधर्मकल्पोपपन्न वैमानिकदेव कर्म-प्राशी विष है। 16. एवं जाव नो पज्जत्तसहस्सारकप्पोवगवेमाणिय जाव कम्मासोविसे, अपज्जत्तसहस्सारकप्पोवग जाव कम्मासीविसे / _ [16] इसी प्रकार यावत् पर्याप्त सहस्रार-कल्पोपपन्न वैमानिक देव कर्म-आशीविष नहीं, किन्तु अपर्याप्त सहस्रार-कल्पोपपन्नक वैमानिक देव कर्म-आशीविष है / विवेचन--प्राशीविष, दो मुख्य प्रकार और उनके अधिकारी प्रस्तुत 16 सूत्रों (सू. 1 से 19 तक) में आशीविष, उसके मुख्य दो प्रकार, जाति-आशीविष और कर्म-ग्राशीविष के अधिकारी जीवों का निरूपण किया गया है। आशीविष और उससे प्रकारों का स्वरूप-प्राशी का अर्थ है-दाद (दंष्ट्रा): जिन जीवों की दाढ़ में विष होता है, वे 'नाशीविष' कहलाते हैं / आशीविष प्राणी दो प्रकार के होते हैं-जातिआशीविष और कर्म-पाशीविष / सांप, बिच्छ, मेंढक आदि जो प्राणी जन्म से ही आशीविष होते हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org