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________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१० ] [ 419 58. जस्स णं भंते ! गोयं तस्स अंतराइयं ? पुच्छा। गोयमा ! जस्स णं गोयं तस्स अंतराइयं सिय अस्थि सिय नत्थि, जस्स पुण अंतराइयं तस्स गोयं नियमा अस्थि 7 / __ [58 प्र.) भगवन् ! जिसके गोत्रकर्म होता है, क्या उसके अन्तरायकर्म होता है, और जिस जीव के अन्तराय कर्म होता है, क्या उसके गोत्रकर्म होता है ? [58 उ.] गौतम ! जिसके गोत्रकर्म है, उसके अन्तरायकर्म होता भी है, और नहीं भी होता, किन्तु जिसके अन्तरायकर्म है, उसके गोत्रकर्म अवश्य होता है। विवेचन-कर्मों के परस्पर सहभाव को वक्तव्यता-प्रस्तुत 17 सूत्रों (सू. 42 से 58 तक) में ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का अपने से उत्तरोत्तर कर्मों के साथ नियम से होने अथवा न होने का विचार किया गया है / नियमा' और 'भजना' का अर्थ-ये दोनों जैनागमीय पारिभाषिक शब्द हैं / नियमा का अर्थ है-नियम से, अवश्य, और भजना' का अर्थ है—विकल्प से, कदाचित होना, कदाचित न होना। प्रस्तुत प्रकरण में चौबीस दण्डकवर्ती जीवों की अपेक्षा से 8 कर्मों की नियमा और भजना समझना चाहिए। किसमें किन-किन कर्मों की नियमा और भजना-मनुष्य में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय, इन चार घातीकर्मों की भजना है (क्योंकि केवली के ये चार घातीकर्म नष्ट हो जाते हैं), जबकि वेदनीय, प्रायष्य, नाम और गोत्रकर्म की नियमा है। शेष 23 दण्डकों में आठ कर्मों की नियमा है / सिद्ध भगवान् में कर्म होते ही नहीं। इस प्रकार पाठ कर्मों की नियमा और भजना के कूल 28 भंग समुत्पन्न होते हैं। यथा--ज्ञानावरणीय से 7, दर्शनावरणीय से 6, वेदनीय से 5, मोहनीय से 4, आयुष्य से 3, नामकर्म से 2, और गोत्रकर्म से 1 / ' ज्ञानावरणीय से 7 भंग - (1) ज्ञानावरणीय में दर्शनावरणीय की नियमा और दर्शनावरणीय में ज्ञानावरणीय की नियमा, (2) ज्ञानावरणीय में वेदनीय की नियमा, किन्तु वेदनोय में ज्ञानावरणीय की भजना, (3) ज्ञातावरणीय में मोहनीय की भजना, किन्तु मोहनीय में ज्ञानावरणीय की नियमा, (4) ज्ञानावरणीय में आयुष्यकर्म की नियमा, किन्तु आयुष्यकर्म में ज्ञानावरणीय को भजना, (5) ज्ञानावरणीय में नामकर्म को नियमा, किन्तु नामकर्म में ज्ञानावरणीय को भजना, (6) ज्ञानावरणीय में गोत्रकर्म की नियमा, किन्त गोत्रकर्म में ज्ञानावरणीय की भजना तथा (7) ज्ञानावरणीय में अन्तरायकर्म की नियमा। दर्शनावरणीय से 6 भंग-(८) दर्शनावरणीय में वेदनीय की नियमा, किन्तु वेदनीय में दर्शनावरणीय की भजना, (6) दर्शनावरणीय में मोहनीय की भजना, किन्तु मोहनीय में दर्शनावरणीय की नियमा, (10) दर्शनावरणीय में आयुष्यकर्म की नियमा, किन्तु आयष्यकर्म में दर्शनावरणीय की भजना, (11) दर्शनावरणीय में नामकर्म को नियमा किन्तु नामकर्म में दर्शनावरणीय में की भजना, (12) दर्शनावरणोय में गोत्रकर्म की नियमा, किन्तु गोत्रकर्म में दर्शनावरणीय की भजना और (13) दर्शनावरणीय में अन्तरायकर्म की नियमा, तथैव अन्तरायकर्म में दर्शनावरणीय की नियमा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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