________________ 420 व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वेदनीय से 5 भंग—(१४) वेदनीय में मोहनीय की भजना, किन्तु मोहनीय में वेदनीय की नियमा, (15) वेदनीय में आयुष्य की नियमा, तथैव प्रायुध्य कर्म में वेदनीय को नियमा, (16) वेदनीय में नामकर्म की नियमा, तथैव नामकर्म में वेदनीय की नियम, (17) वेदनीय में गोत्रकर्म की नियमा, तथैव गोत्रकर्म में वेदनीय की नियमा, (18) वेदनीय में अन्तरायकम की भजना, किन्तु अन्तरायकर्म में वेदनीय की नियमा। मोहनीय से 4 भंग--(१९) मोहनीय में आयुष्य की नियमा, किन्तु आयुष्यकर्म में मोहनीय की भजना, (20) मोहनीय में नामकर्म को नियमा, किन्तु नामकर्म में मोहनीय की भजना, (21) मोहनीय में गोत्रकर्म की नियमा, किन्तु गोत्रकर्म में मोहनीय की भजना, (22) मोहनीय में अन्तरायकर्म को नियमा, किन्तु अन्तराय कर्म में मोहनीय की भजना। प्रायुष्यकर्म से 3 भंग--(२३) आयुष्यकर्म में नामकर्म की नियमा, तथैव नामकर्म में आयुष्यकर्म को नियमा, (24) आयुष्यकर्म में गोत्रकर्म की नियमा तथैव गोत्रकर्म में आयुष्यकर्म की नियमा, (25) आयुष्यकर्म में अन्तरायकर्म की भजना, किन्तु अन्तरायकर्म में आयुष्यकर्म की नियमा / नामकर्म से दो भंग--(२६) नामकर्म में गोत्रकर्म की नियमा तथैव गोत्रकर्म में नामकर्म की नियमा, (27) नामकर्म में अन्तरायकर्म की भजना, किन्तु अन्तराय कर्म में नामकर्म की भजना / गोत्रकर्म से एक भंग-(२८) गोत्रकर्म में अन्तरायकर्म की भजना, किन्तु अन्तरायकर्म में गोत्रकर्म की नियमा। इस प्रकार पाठ कर्मों के नियमा और भजना से परस्पर सहभाव की घटना कर लेनी चाहिए।' संसारी और सिद्ध जीव के पुद्गली और पुद्गल होने का विचार 56. [1] जीवे णं भंते ! कि पोग्गली, पोग्गले ? गोयमा ! जीवे पोग्गली वि, पोग्गले वि। [56-1 प्र.] भगवन् ! जीव पुद्गली है अथवा पुद्गल है। [56-1 उ] गौतम ! जीव पुद्गली भी है और पुद्गल भी। [2] से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ 'जीवे पोग्गली वि पोग्गले बि' ? गोयमा! से जहानामए छत्तेणं छत्ती, दंडेणं दंडी, घडेणं घडी, पडेणं पडो, करेणं करी एवामेव-- गोयमा ! जीवे वि सोइंदिय-चक्खि दिय-घाणिदिय-जिभिदिय-फालिदियाई पडुच्च पोग्गली, जीवं पडुच्च पोग्गले, से तेणठेशं गोयमा ! एवं वुच्चइ 'जीवे पोग्गली वि पोग्गले वि'। [59-2 प्र] भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि जोब पुद्गली भी है और पुद्गल भी है ? [59-2 उ.] गौतम ! जैसे किसी पुरुष के पास छत्र हो उसे छत्री, दण्ट हो उसे दण्डी, 1. भगवती सुत्र प्र. वृत्ति, पत्रांक 424 - - -- ---- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org