________________ अष्टम शतक : उद्देशक- 10 [421 घट होने से घटी, पट होने से पटो, एवं कर होने से करी कहा जाता है, इसी तरह, हे गौतम ! जीव श्रोत्रेन्द्रिय-चक्षुरिन्द्रिय-घ्राणेन्द्रिय-जिह्वन्द्रिय-स्पर्श न्द्रिय-( स्वरूप पुद्गल वाला होने से ) की अपेक्षा से 'पुद्गली' कहलाता है, तथा स्वयं जीव की अपेक्षा 'पुद्गल' कहलाता है। इस कारण से हे गौतम ! मैं कहता हूँ कि जोब पुद्गली भी है और पुद्गल भी है। 60 [1] नेर इए णं भंते ! कि पोग्गली. ? एवं चेव / [60.1 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव पुद्गली है, अथवा पुद्गल है ? [60-1 उ.] गौतम ! उपर्युक्त सूत्रानुसार यहाँ भी कथन करना चाहिए। [2] एवं जाव वेमागिए / नवरं जस्स जइ इंदियाई तस्स तइ वि माणियन्वाई। [60.2] इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए, किन्तु साथ ही, जिस जीव के जितनी इन्द्रियां हों, उसके उतनी इन्द्रियां कहनी चाहिए। 61, [1] सिद्धे णं भंते ! कि पोग्गली, पोग्गले ? गोयमा ! नो पोग्गली, पोग्गले / |61-1 प्र.] भगवन् ! सिद्धजीव पुद्गली हैं या पुद्गल हैं ? [61-1 उ.] गौतम ! सिद्धजीव पुद्गली नहीं किन्तु पुद्गल हैं। [2] से केणठेणं भंते ! एवं बच्चइ जाव पोग्गले ? गोयमा ! जीवं पडुच्च, से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ सिद्धे नो पोग्गलो, पोग्गले' / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०। / अनुमसए : दसमो उद्देसमो समत्तो।। / समत्तं प्रढम सयं // [61-2 प्र.] भगवन् ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं, कि सिद्धजीव पुद्गली नहीं, किन्तु पुद्गल हैं ? [62-2 उ.! गौतम ! जीव की अपेक्षा सिद्धजीव पुद्गल हैं; (किन्तु उनके इन्द्रियां न होने से वे पुद्गली नहीं हैं ; ) इस कारण से मैं कहता हूँ कि सिद्धजीव पुद्गली नहीं, किन्तु पुद्गल हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर श्री गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं / विवेचन—संसारी एवं सिद्ध जीव के पुदगली तथा पुदगल होने का विचार–प्रस्तुत तीन सूत्रों में क्रमश: जीव, चतुर्विंशति दण्डकवर्ती जीव एवं सिद्ध भगवान् के पुद्गली या पुदगल होने के सम्बन्ध में सापेक्ष विचार किया गया है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org