________________ 422 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पुद्गली एवं पुदगल की व्याख्या--प्रस्तुत प्रकरण में 'पुद्गली' उसे कहते हैं, जिसके श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय अादि पुद्गल हों / जैसे-घट, पट, दण्ड, छत्र आदि के संयोग से पुरुष को घटी, पटी, दण्डी एवं छत्री कहा जाता है, वैसे ही इन्द्रियोंरूपी पुद्गलों के संयोग से औधिक जीव तथा चौबीस दण्डकवर्ती जीवों को 'पुद्गली' कहा गया है। सिद्ध जीवों के इन्द्रियरूपी पुद्गल नहीं होते, इसलिए वे 'पुद्गली' नहीं कहलाते / जीव को यहाँ जो 'पुद्गल' कहा गया है, वह जीव की संज्ञा मात्र है। यहाँ 'पुद्गल' शब्द से 'रूपी अजीव द्रव्य' ऐसा अर्थ नहीं समझना चाहिए। वृत्तिकार ने जीव के लिए 'पुद्गल' शब्द को संज्ञावाची बताया है।' // अष्टम शतक : दशम उद्देशक समाप्त / / // अष्टम शता 1. भगवती सूत्र अ. वत्ति, पत्रांक 424 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org