________________ और जमाली की पत्नी प्रियदर्शना भी एक सहस्र स्त्रियों के साथ दीक्षित हुई। जमाली के विरोधी होने का इतिहास प्रस्तुत प्रकरण में दिया गया है। एक बार जमाली भगवान महावीर की बिना अनुमति प्राप्त किए हो 500 श्रमणों के साथ पृथक् प्रस्थान कर गए। उन तप एवं नीरस आहार से उनके शरीर में पित्तज्वर हो गया। वे पीड़ा से प्राकुल-व्याकुल हो रहे थे। उन्होंने अपने सहवर्ती श्रमणों को शय्या संस्तारक करने का आदेश दिया। पीड़ा के कारण एक क्षण का विलम्ब भी उन्हें सह्य नहीं था। उन्होंने पूछा- शय्या संस्तारक कर दिया है ? साधुओं ने निवेदन किया-जी हाँ, कर दिया है / जमाली सोचने लगे कि भगवान महावीर क्रियमाण को कृत, चलमान को चलित कहते हैं जो गलत है। जब तक शय्या संस्तारक पूरा विछ नहीं जाता जब तक उसे विछा हुअा कैसे कहा जा सकता है ? उन्होंने अपने विचार श्रमणों के सामने प्रस्तुत किए। कुछ श्रमणों ने उनकी बात को स्वीकार किया और कुछ ने स्वीकार नहीं किया / जिन्होंने स्वीकार किया / बे उनके साथ रहे और जिन्होंने स्वीकार नह वे भगवान् महावीर के पास लौट आए। जब जमाली स्वस्थ हुए तब वे भगवान् महावीर के पास पहुंचे और कहने लगे-पापके अनेक शिष्य छदमस्थ हैं, केवलज्ञानी नहीं। पर मैं तो केवलज्ञान-दर्शन से युक्त अर्हत जिन और केवली के रूप में विचरण कर रहा है। गणधर गौतम ने जमाली का प्रतिवाद किया। उन्होंने पूछा कि यदि आप केवलज्ञानी हैं तो बताएँ कि लोक शाश्वत है या अशाश्वत ? जीव शाश्वत है या अशाश्वत ? जमाली गौतम के प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सके / तब भगवान महावीर ने कहा-जमाती ! मेरे अनेक शिष्य इन प्रश्नों का समाधान कर सकते हैं. तथापि वे अपने-आपको जिन व केवली नहीं कहते हैं। जमाली के पास इसका कोई उत्तर नहीं था, वर्षों तक असत्य प्ररूपणा करते रहे। अन्त में अनशन किया पर पाप की आलोचना नहीं की। जिससे वे लान्तक देवलोक में किल्बिषिक देव के रूप में उत्पन्न हुए। विशेषावश्यकभाष्य 56 में वर्णन है कि जमाली को विद्यमानता में ही प्रियदर्शना भी जमाली की विचारधारा में प्रवाहित हो गई थी और महावीर संघ को छोड़कर जमाली के संघ में मिल गई थी। एकदा अपने साध्वीपरिवार के साथ श्रावस्ती में ढंक कुभकार की शाला में ठहरी / ढंक महावीर का परम भक्त था। उसने प्रियदर्शना को प्रतिबोध देने के लिए उसकी साड़ी में आग लगा दी। साड़ी जलने लगी। प्रियदर्शना के मुंह से शब्द निकले 'संघाटो जल गई"। ढंक ने कहा-ग्राफ मिथ्या संभाषण कर रही हैं। संधाटी जली नहीं जल रही है। प्रियदर्शना प्रबुद्ध हुई। उसे अपनी भूल परिज्ञात हुई / भूल का प्रायश्चित्त कर वह पुनः साध्वीसमूह के साथ महावीर के साध्वी-परिवार में सम्मिलित हो गई। भगवतीसूत्र शतक 15 में गोशालक का ऐतिहासिक निरूपण हुआ है। गोशालक भगवान महावीर की छदमस्थ अवस्था में ही भगवान् महावीर की तपःपूत साधना को निहारकर उनका शिष्य बनने के लिए लालायित था। उसने भगवान महावीर से शिष्य बनाने की प्रार्थना की और चिरकाल तक भगवान् के साथ रहा भी। इसका सविस्तृत वर्णन प्रस्तुत प्रकरण में पाया है। गोशालक मंख कर्म करने वाले मखली नामक व्यक्ति का पूत्र था। 'गोसाले मंखलीपुत्ते" शब्द का प्रयोग भगवती, उपासकदशांग प्रादि मागमों में अनेक स्थलों पर हमा है। मंख का अर्थ कहीं पर चित्रकार 260 प्रौर कहीं पर चित्रविक्रेता२६ ' मिलता है। प्राचार्य अभयदेव ने अपनी टीका में लिखा है "चित्रफल के हस्ते गतं यस्य स तथा' अर्थात् जो चित्रपट्टक हाथ में रखकर आजीविका 259. विशेषावश्कभाष्य, गाथा 2324 से 2332 260. Indological Studies, Vol. II, Page 254 261. Dictionary of Pali Proper Names Vol. II, Page 400 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org