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________________ 376] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अंबे 1 अंबरिसे चेव 2 सामे 3 सबले ति यावरे 4 / रुद्दोवरुद्दे 5-6 काले य 7 महाकाले ति यावरे 8 // 1 // असी यह असिपत्ते 10 कुभे 11 वालू 12 बेतरणी ति य 13 / खरस्सरे 14 महाघोसे 15 एए पन्नरसाऽऽहिया / / 2 / / [5-4] देवेन्द्र देवराज शक के लोकपाल–यम महाराज के देव अपत्यरूप से अभिमत (पुत्रस्थानीय) हैं---'अम्ब, अम्बरिष, श्याम, शबल, रुद्र, उपरुद्र, काल, महाकाल, असिपत्र, धनुष, कुम्भ, बालू, वैतरणी, खरस्वर, और महाघोष, ये पन्द्रह विख्यात हैं। __[5] सक्कस्स गं देविदस्स देवरगो जमस्स महारणो सत्तिभाग पलिश्रोवमं ठिती पण्णत्ता / अहावच्चाभिण्णायाणं देवाणं एग पलिनोवमं ठिती पण्णत्ता। एमहिड्ढिए जाव जमे महाराया। 5-5] देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल-यम महाराज की स्थिति तीन भाग सहित एक पल्योपम की है और उसके अपत्यरूप से अभिमत देवों की स्थिति एक पल्योपम की है। ऐसी महाऋद्धि वाला यावत् यममहाराज है।। विवेचन-यम लोकपाल के विमानस्थान आदि से सम्बन्धित वर्णन-प्रस्तुत पाँचवें सूत्र द्वारा शकेन्द्र के द्वितीय लोकपाल यम महाराज के विमान-स्थान, उसका परिमाण, प्राज्ञानुवर्ती देव, उसके द्वारा ज्ञात, श्रुत आदि कार्य, उसके अपत्य रूप से अभिमत देव तथा यम महाराज एवं उसके अपत्य रूप से अभिमत देवों की स्थिति का निरूपण किया गया है। यमकायिक आदि की व्याख्या-यमलोकपाल के परिवाररूप देव 'यमकायिक', यमलोकपाल के सामानिक देव 'यमदेव' तथा यमदेवों के परिवाररूप देव 'यमदेवकायिक' कहलाते हैं / प्रेतकायिक व्यन्त रविशेष / प्रेतदेवकायिक प्रेतदेवों के सम्बन्धी देव / कंदप्प = अतिक्रीड़ाशील देव (कन्दर्प) प्राभियोगा=अभियोग-आदेशवर्ती अथवा प्राभियोगिक भावनाओं के कारण ग्राभियोगिक देवों में उत्पन्न / अपत्यरूप से अभिमत पन्द्रह देवों की व्याख्या-पूर्वजन्म में कर क्रिया करने वाले, जर परिणामों वाले, सतत पापरत कुछ जीव पंचाग्नि तप आदि अज्ञानतप से किये गए निरर्थक देहदमन से आसुरीगति को प्राप्त, ये पन्द्रह परमाधार्मिक असुर कहलाते हैं / ये तीसरी नरकभूमि तक जा कर नारकी जीवों को कष्ट देकर प्रसन्न होते हैं, यातना पाते हुए नारकों को देखकर ये अानन्द मानते हैं। (1) अम्ब जो नारकों को ऊपर आकाश में ले जा कर छोड़ते हैं, (2) अम्बरीष = 'जो छुरी आदि से नारकों के छोटे-छोटे, भाड़ में पकने योग्य टुकड़े करते हैं; (3) श्याम = ये काले रंग के व भयंकर स्थानों में नारकों को पटकते एवं पीटते हैं; (4) शबल = जो चितकबरे रंग के व नारकों की प्रांतेंनसें एवं कलेजे को बाहर खींच लेते हैं। (5) रुद्र = नारकों को भाला, बर्थी आदि शस्त्रों में पिरो देने वाले रौद्र-भयंकर असूर (6) उपरुद्र = नारकों के अंगोपांगों को फाड़ने वाले अतिभयंकर असुर / (7) काल = नारकों को कड़ाही में पकाने वाले, काले रंग के असुर, (8) महाकाल = 1. (क) भगवती, (टीकानुवाद पं. वेचरदासजी) खण्ड-२, पृ. 116-117 (ख) भगवती अ. वृत्ति, पत्राक 198 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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