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________________ तृतीय शतक : उद्देशक-७॥ [377 नारकों के चिकने मांस के टुकड़े-टुकड़े करके उन्हें खिलाने वाले, अत्यन्त काले रंग के असुर; (8) असिपत्र-जो तलवार के आकार के पत्ते वैक्रिय से बना कर नारकों पर गिराते हैं। (10) धनुषजो धनुष द्वारा अर्धचन्द्रादि वाण फेंक कर नारकों के नाक कान आदि बींध डालते हैं, (11) कुम्भजो नारकों को कुम्भ या कुम्भी में पकाते हैं, (12) बाल = वैक्रिय द्वारा निर्मित वज्राकार या कदम्ब पुष्पाकार रेत में नारकों को डाल कर चने की तरह भूनते हैं / (13) वैतरणी = जो रक्त, मांस, मवाद, ताम्बा, शीशा आदि गर्म पदार्थों से उबलती हुई नदी में नारकों को फैक कर तैरने के लिए वाध्य करते हैं, (14) खरस्वर = जो वज्रकण्टकों के भरे शाल्मलि वृक्ष पर नारकों को चढ़ाकर, करुणक्रन्दन करते हुए नारकों को कठोरस्वरपूर्वक खींचते हैं, (15) महाघोष = डर से भागते हुए नारकों को पकड़ कर बाड़े में बन्द कर देते हैं, जोर से चिल्लाते हैं।' वरुणलोकपाल के विमान-स्थान आदि से सम्बन्धित वर्णन 6. [1] कहि णं भंते ! सक्कस्स देविदस्स देवरण्णो वरुणस्स महारणो सयंजले नामं महाविमाणे पण्णते? __गोयमा ! तस्स णं सोहम्मवडिसयस महाविमाणस्स पच्चत्थिमेणं सोहम्मे कप्पे असंखेज्जाई जहा सोमस्स तहा विमाण-रायहाणीग्रो भाणियव्वा जाव पासायडिसया नवरं नामनाणत्तं / 6.1 प्र.] भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल-वरुण महाराज का स्वयंज्वल नामक महाविमान कहाँ है ? 6-1 उ.] गौतम ! उस सौधर्मावतंसक महाविमान से पश्चिम में सौधर्मकल्प से असंख्येय हजार योजन पार करने के बाद, वहीं वरुणमहाराज का स्वयंज्वल नाम का महाविमान आता है; इससे सम्बन्धित सारा वर्णन सोममहाराज के महाविमान की तरह जान लेना चाहिए, राजधानी यावत प्रासादावतंसकों के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिए। केवल नामों में अन्तर है। [2] सक्कस्स गं० वरुणस्स महारण्णो इमे देवा प्राणा० जाव चिटुंणि, तं०-वरुणकाइया, ति वा, वरुणदेवयकाइया इ वा, नागकुमारा नागकुमारोश्रो, उदहिकमारा उदहिकुमारीग्रो, थणियकुमारा थणियकुमारीग्रो, जे यावण्णे तहप्पगारा सत्वे ते तम्भतिया जाव चिट्ठति / / [6-2] देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल वरुण महाराज के ये देव आज्ञा में यावत रहते हैंबरुणकायिक, वरुणदेव कायिक, नागकुमार-नागकुमारियाँ; उदधिकुमार-उदधिकुमारियाँ स्तनित. कुमार-स्तनितकुमारियाँ ; ये और दूसरे सब इस प्रकार के देव, उनकी भक्तिवाले यावत् रहते हैं। [3] जंबुद्दोवे 2 मदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं जाई इमाइं समुप्पज्जति, तं जहा–प्रतिवासा ति वा, मंदवासा ति वा, सुवुट्ठी ति वा, दुश्वुट्ठी ति वा, उदभेया ति वा, उदप्पीला इवा, उदवाहा ति वा, पवाहा ति वा, गामवाहा ति वा, जाव सन्निवेसवाहा ति वा, पाणक्खया जाव तेसि वा वरुणकाइयाणं देवाणं / 1. (क) भगवती अ. वृत्ति गवांक 198 (ख) भगवती, (विवेचनयुक्त) (पं-घेवरचन्दजी) भा-२, पृ-७२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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