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________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 24] [265 पलिओवमाई, उक्कोसेणं तिनि पलिनोवमाई। एवं अणुबंधो वि। सेसं तहेव / कालाएसेणं जहण्णेणं दो पलिओवमाई, उक्कोसेणं छ पलिग्रोवमाइं; एवतियं / [पढमो गमो] / [3 प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [3 उ.] (गौतम ! ) जैसी वक्तव्यता ज्योतिष्कदेवों में उत्पन्न होने वाले असंख्येयवर्षायुष्क सं. पं. तिर्यञ्चों की कही गई है, वैसी ही वक्तव्यता यहाँ (सौधर्म-देवों के लिए) भी कहनी चाहिए। विशेषता (भिन्नता) यह है कि वे सम्यग्दृष्टि और मिश्यादृष्टि होते हैं, सम्यगमिथ्यादृष्टि नहीं, वे ज्ञानी भी होते हैं, अज्ञानी भी। उनमें दो ज्ञान या अज्ञान नियम से होते हैं। उनकी स्थिति जघन्य दो पल्योपम की और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की होती है। अनुबन्ध भी इसी प्रकार जानना। शेष पूर्ववत् / कालादेश से-जघन्य दो पल्योपम और उत्कृष्ट छह पल्योपम, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [प्रथम गमक] ___4. सो चेव जहन्नकालद्वितीएसु उववन्नो, एस चेव वत्तव्वया, नवरं कालाएसेणं जहन्नेणं दो पलिनोवमाइं, उक्कोसेणं चत्तारि पलिओवमाई; एवतियं० / [बीओ गमश्रो] / [4] यदि वह (असंख्येयवर्षायुष्क सं. पं.तिर्यञ्च), जघन्यकाल की स्थिति वाले सौधर्मदेवों में उत्पन्न हो, तो उसके सम्बन्ध में भी यही वक्तव्यता है / विशेष यह है कि कालादेश से---जघन्य दो पल्योपम और उत्कृष्ट चार पल्योपम, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। [द्वितीय गमक] 5. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, जहन्नेणं तिपलिनोवम०, उक्कोसेण वि तिपलिओबमः / एस चेव बत्तव्यया, नवरं ठिती जहन्नेणं तिन्नि पलिनोवमाई, उपकोसेण वि तिन्नि पलिनोवमाई / सेसं तहेव / कालाएसेणं जहन्नेणं छ पलिग्रोवमाई, उक्कोसेण वि छप्पलिनोवमाई / [तइनो गमो ] / [5] यदि वह (असंख्येयवर्षायुष्क सं. पं. ति.), उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले सौधर्मदेवों में उत्पन्न हो तो वह जघन्य और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति वाले सौधर्मदेवों में उत्पन्न होता है, इत्यादि वहीं पूर्वोक्त वक्तव्यता यहाँ कहना / विशेष यह है कि स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट तीन पल्योपम / शेष पूर्ववत् / कालादेश से-जघन्य और उत्कृष्ट छह पल्योपम / इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। 6. सो चेव अप्पणा जहन्नकाल द्वितीयो जानो, जहन्नेणं पलिग्रोवद्वितीएसु, उक्कोसेण वि पलिप्रोवमट्टितीएसु / एस चेव वत्तव्वया, नवरं ओगाहणा जहन्नेणं धणपुहत्तं, उक्कोसेणं दो गाउयाई। ठिती जहन्नेणं पलिओवम, उक्कोसेण वि पलिओवमं / सेसं तहेव / कालाएसेणं जहन्नेणं दो पलिग्रोवमाई, उक्कोसेण वि दो पलिप्रोवमाई; एवतियं० / [4-6 गमगा] / [6] यदि वह (असंख्ये. सं. पं. तिर्यञ्च) स्वयं जघन्यकाल की स्थिति वाला हो और सौधर्म देवों में उत्पन्न हो, जघन्य और उत्कृष्ट एक पल्योपम की स्थिति वाले सौधर्म देवों में उत्पन्न होता है, इत्यादि सब वक्तव्यता पूर्वोक्त कथनानुसार / विशेष इतना है कि अवगाहना जघन्य धनुषपृथक्त्व और उत्कृष्ट दो गाऊ / स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट पल्योपम की होती है / शेष पूर्ववत् / कालादेशसे जघन्य और उत्कृष्ट दो फ्ल्योपम, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। [गमक 4-5-6] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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