________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 8] [415 कठिनशब्दार्थ दिवे-दिव्य, प्रधान / सच्चोवाए–सत्यावपात—जिसकी की गई सेवा सफल होती है। सन्निहियपाडिहेरे-पूर्वभव से सम्बन्धित देव के द्वारा किया गया सान्निध्य / लाउल्लोइयमहिते-जिसका पीठ (चबूतरा) लीपा-पुता हुअा तथा पूजनीय होगा।' शाल वृक्षादि सम्बन्धी तीन प्रश्न-यद्यपि शालवृक्ष आदि में अनेक जीव होते हैं, तथापि प्रथम जोव को अपेक्षा से ये तीनों प्रश्न प्रस्तुत किये गए हैं।' अम्बडपरिव्राजक के सात सौ शिष्य आराधक हए 21. तेणं कालेग तेणं समएणं अामडरस परिवायगस्स सत्त अंतेवासिसया गिम्हकालसमयंसि एवं जहा उववातिए जाव आराहगा। [21] उस काल, उस समय अम्बड परिव्राजक के सात सौ शिष्य (अन्तेवासी) ग्रीष्म ऋतु के समय में विहार कर रहे थे, इत्यादि समस्त वर्णन औषपातिक सूत्रानुसार, यावत्-वे (सभी) पाराधक हुए, यहाँ तक कहना चाहिए / विवेचन-सात सौ आराधक अम्बड-परिव्राजक शिष्य-ौषपातिक सूत्रानुसार संक्षेप में वृत्तान्त इस प्रकार है-एक बार ग्रीष्मकाल में अम्बड परिव्राजक के सात सौ शिष्य गंगानदी के दोनों किनारों पर आए हुए काम्पिल्यपुर नगर से पुरिमताल नगर की ओर जा रहे थे। जब उन्होंने अटवी में प्रवेश किया तव साथ में लिया हुया पानी पी लेने से समाप्त हो गया। अतः प्यास से वे सब पीडित हो गए / पास ही गंगा नदी में निर्मल जल बह रहा था। किन्तु उनकी अदत्त (बिना दिये हुए) ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा थी। कोई भी जल का दाता उन्हें वहाँ न मिला। वे तृषा से अत्यन्त व्याकुल हुए / उनके प्राण संकट में पड़ गए। अन्त में सभी मरणासन्न साधकों ने अर्हन्त भगवान् को 'नमस्कार' कार के गंगा नदी के किनारे ही यावज्जीव अनशन (संथारा) ग्रहण कर लिया / काल करके वे सभी ब्रह्मलोक कल्प में उत्पन्न हुए। इस प्रकार के सभी परलोक के आराधक हुए। अम्बडपरिव्राजक को दो भवों के अनन्तर मोक्ष प्राप्ति की प्ररूपणा 22. बहुजणे गं भंते ! अन्नमन्नस्स एवमाइवखति ४-एवं खलु अम्मडे परिवायए कंपिल्लपुरे नगरे घरसते? एवं जहा उववातिए अम्मउवत्तवया जाव दढप्पतिष्णे अंतं काहिति / [22 प्र.] भगवन ! बहुत-से लोग परस्पर एक दूसरे से इस प्रकार कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि अम्बड परिव्राजक काम्पिल्यपुर नगर में सौ घरों में भोजन करता है तथा रहता है, (क्या यह सत्य है ? इत्यादि प्रश्न)। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 653 2. वही, अ. वृत्ति, पत्र 653 3. (क) औपपातिकसूत्र, सू. 39, पत्र 94-95 (प्रागमोदय समिति) (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 653 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org