________________ पुन: कालास्यवेशी ने जिज्ञासा प्रस्तुत की--प्रात्मा सामायिक मादि है तो फिर आप क्रोध, मान, माया, लोभ प्रादि की निन्दा, गहीं क्यों करते हैं? क्योंकि निन्दा तो असंयम है / स्थविरों ने कहा-आत्मनिन्दा असंयम नहीं है। यात्मनिन्दा करने से दोषों से बचा जाता है और आत्मा संयम में संस्थापित होता है। पर-निन्दा असंयम है / वह पीठ के मांस खाने के समान निन्दनीय है। पर स्व-निन्दा वही व्यक्ति कर सकता है जिसे अपने दोषों का परिज्ञान है। इसीलिए आगमसाहित्य में साधक के लिए 'निन्दामि, गरिहामि' ग्रादि शब्द प्रयुक्त भगवतीसूत्र शतक एक, उद्देशक 10 में गणधर गौतम ने भगवान् महावीर से जिज्ञासा प्रस्तुत की कि अन्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं कि एक जीव एक समय में दो क्रियाएँ करता है-ईपिथिकी ये दोनों क्रियाएं साथ-साथ होती हैं ? भगवान ने समाधान दिया-प्रस्तुत कथन मिथ्या है, क्योंकि जीव एक समय में एक ही क्रिया कर सकता है। ईर्यापथिकी क्रिया कषायमुक्त स्थिति में होती है तो साम्परायिकी क्रिया कषाययुक्त स्थिति में होती है। ये दोनों परस्पर विरुद्ध हैं। भगवती में विविध प्रकार की वनस्पतियों का भी उल्लेख है / वनस्पतिविज्ञान पर प्रज्ञापना में भी विस्तार से वर्णन है / वनस्पति अन्य जीवो की तरह श्वास ग्रहण करती है, नि:श्वास छोड़ती है / ग्राहार आदि ग्रहण करती है। इनके शरीर में भी चय-उपचय, हानि-वद्धि, सुख-दुःखात्मक अनुभूति होती है। सुप्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक श्री जगदीशचन्द्र बोस ने अपने परीक्षणों द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि वनस्पति में क्रोध भी पैदा होता है, और वह प्रेम भी प्रदर्शित करती है। प्रेम-पूर्ण सद्व्यवहार से वनस्पति पुलकित हो जाती है और घणापूर्ण व्यवहार से मुर्भा जाती है / बोस के प्रस्तुत परीक्षण ने समस्त बैज्ञानिक जगत् को एक अभिनव प्रेरणा प्रदान की है। जिस प्रकार वनस्पति के संबंध में वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि उसमें जीवन है, इसी प्रकार सुप्रसिद्ध भूगर्भ-वैज्ञानिक फ्रान्सिस ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "Ten years under earth' में लिखा--- मैंने अपनी विभिन्न यात्रानों के दौरान पृथ्वी के ऐसे-ऐसे विचित्र स्वरूप देखें हैं-जो अाधुनिक पदार्थविज्ञान के विपरीत है / उस स्वरूप को वर्तमान वैज्ञानिक अपने आधुनिक नियमों से समभा नहीं सकते / मुझे ऐसा लगता है, प्राचीन मनीषियों ने पृथ्वी में जो जीवत्व शक्ति की कल्पना की है वह अधिक यथार्थ है, सत्य है / भगवतीसूत्र में तेजोलेश्या की अपरिमेय शक्ति प्रतिपादित की है। वह अंग, बंग, कलिग आदि सोलह जनपदों को नष्ट कर सकती है। वह शक्ति अतीत काल में साधना द्वारा उपलब्ध होती थी तो याज विज्ञान ने एटम बम आदि अणु शक्ति को विज्ञान के द्वारा सिद्ध कर दिया है कि पुदगल की शक्ति कितनी महान होती है / इस प्रकार भगवतीसूत्र में सहस्रों विषयों पर गहराई से चिन्तन हुअा है / यह चिन्तन अपने आप में महत्त्वपूर्ण है। इस पागम में स्वयं श्रमण भगवान महावीर के जीवन के और उनके शिष्यों के एवं गहस्थ उपासकों के व अन्यतीथिक संन्यासियों के और उनकी मान्यताओं के विस्तृत प्रसंग पाये हैं। प्राजीवक सम्प्रदाय के अधिनायक गोशालक के सम्बन्ध में जितनी विस्तृत सामग्री प्रस्तुत प्रागम में है, उतनी अन्य भागमों में नहीं है। ऐतिहासिक तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ और उनके अनुयायियों का तथा उनके चातुर्याम धर्म के सम्बन्ध में प्रस्तुत आगम में पर्याप्त जानकारी है। प्रस्तुत प्रागम से यह सिद्ध है कि भगवान महावीर के समय में भगवान् पार्श्वनाथ के सैकड़ों श्रमण थे। उन श्रमणों ने भगवान् महावीर के अनुयायियों से और उनके शिष्यों से चर्चाएं की। वे भगवान महावीर के ज्ञान से प्रभावित हुए। उन्होंने चातुर्याम धर्म के स्थान पर पंच महाव्रत रूप धर्म को स्वीकार किया। इस अागम में महाराजा कूणिक और महाराजा चेटक के बीच जो महाशिलाकण्टक और [98 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org