SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 2173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती शतक 7, उद्देशक 1 में लोक के प्राकार पर भी चिन्तन किया गया है / शतक 13, उद्देशक 4 में लोक के मध्य भाग के सम्बन्ध में प्रकाश डाला है। शतक 11, उद्देशक 10 में अधोलोक, तिर्यकलोक, ऊध्र्वलोक का विस्तार से निरूपण है / शतक 5, उद्देशक 2 में लवणसमुद्र आदि के प्राकार पर विचार किया गया है / इस प्रकार लोक के सम्बन्ध में भी अनेक जिज्ञासाएं और समाधान हैं। अन्य दर्शनों के साथ लोक के स्वरूप पर और वर्णन पर तुलनात्मक दृष्टि से चिन्तन किया जा सकता है, पर विस्तारभय से हम यहाँ उस सम्बन्ध में जिज्ञासु पाठकों को लेखक का 'जनदर्शन, स्वरूप और विश्लेषण' देखने की प्रेरणा देते हैं। समवसरण भगवान महावीर के युग में अनेक मत प्रचलित थे। अनेक दार्शनिक अपने-अपने चिन्तन का प्रचार कर रहे थे। प्रागम की भाषा में मत या दर्शन को समवसरण कहा है / जो समवसरण उस युग में प्रचलित थे, उन सभी को चार भागों में विभक्त किया है-क्रियावादी, प्रक्रियावादी, प्रज्ञानवादी और विनयवादी / (1) क्रियावादी की विभिन्न परिभाषाएं मिलती हैं। प्रथम परिभाषा है कर्ता के बिना क्रिया नहीं होती। इसलिए क्रिया का कर्ता आत्मा है। आत्मा के अस्तित्व को जो स्वीकार करता है वह क्रियावादी है। दूसरी परिभाषा है-क्रिया ही प्रधान है, ज्ञान का उतना मुल्य नहीं, इस प्रकार की विचारधारा बाले क्रियावादी हैं / ततीय परिभाषा है-जीव-अजीव, आदि पदार्थों का जो अस्तित्व मानते हैं वे क्रियावादी हैं / क्रियावादियों के एक सौ अस्सी प्रकार बताये हैं। (2) अक्रियावादी का यह मन्तव्य था कि चित्तशुद्धि की ही अावश्यकता है। इस प्रकार की विचारधारा वाले अक्रियावादी हैं अथया जीव मादि पदार्थों को जो नहीं मानते हैं वे प्रक्रियावादी हैं / प्रक्रियावादो के चौरासी प्रकार हैं। (3) अज्ञानवादी-अज्ञान ही श्रेय रूप है। ज्ञान से तीव्र कर्म का बन्धन होता है। अज्ञानी व्यक्ति को कर्मबन्धन नहीं होता / इस प्रकार की विचारधारा वाले अज्ञानवादी हैं। उनके सड़सठ , (4) विनयवादी-स्वर्ग, मोक्ष प्रादि विनय से ही प्राप्त हो सकते हैं। जिनका निश्चित कोई भी प्राचारशास्त्र नहीं, सभी को नमस्कार करना ही जिन का लक्ष्य रहा है वे विनयवादी हैं / विनयवादी के 32 प्रकार हैं। ये चारों समवसरण मिथ्यावादियों के ही बताये गये हैं / तथापि जीव आदि तत्त्वों को स्वीकार करने के कारण क्रियावादी सम्यम्हष्टि भी हैं। शतक 30, उद्देशक 1 में इन चारों समवसरणों पर विस्तार से विवेचन किया है। भगवती शतक 4, उद्देशक 5 में जम्बूद्वीप के अवसपिणीकाल में जो सात कुलकर हुए हैं, उनके नाम विमलवाहन, चक्षुष्मान, यशोमान, अभिचन्द्र, प्रसेनजित, मरुदेव और नाभि / कुलकरों के सम्बन्ध में जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति की प्रस्तावना में हम विस्तार से लिख चके हैं / कालास्यवेशी भगवतीसूत्र शतक 1, उद्देशक 9 में भगवान् पाशवनाथ की परम्परा के कालास्यवेशी अनगार ने भगवान् महावीर के स्थविरों से पूछा--सामायिक क्या है ? प्रत्याख्यान क्या है ? संयम क्या है ? संवर क्या है ? विवेक क्या है ? व्युत्मर्ग क्या है ? क्या प्राप इनको जानते हैं ? इनके अर्थ को जानते हैं ? स्थविरों ने एक ही शब्द में उत्तर दिया--आत्मा ही सामायिक, प्रत्याख्यान, संयम आदि है और आत्मा ही उसका अर्थ है। इससे स्पष्ट है कि जैनदर्शन की जो साधना है वह सब साधना प्रात्मा के लिए ही है। [ 97 ] Jain Education International ? For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy