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________________ (1) औदारिकवर्गणा :--स्थूल पुद्गलमय है। इस वर्गणा से पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति और बस जीवों के शरीर का निर्माण होता है। (2) वैक्रियवर्गणाः-लघ, विराट, हल्का, भारी, दृश्य; अदृश्य विभिन्न क्रियाएँ करने में सशक्त शरीर के योग्य पुद्गलों का समुह / (3) प्राहारकवर्गणा:-योगशक्तिजन्य शरीर के योग्य पुदगलसमूह / (4) तेजसवर्गणा:-तेजस शरीर के योग्य पुदगलों का समूह / (5) कार्मणवर्गणा:-ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के रूप में परिणत होने वाले पुद्गलों का समूह, जिनसे कार्मण नामक सूक्ष्म शरीर बनता है। (6) श्वासोच्छवासवर्गणा:-पान-प्राण के योग्य पुदगलों का समूह / (7) वचनवर्गणा:-भाषा के योग्य पुद्गलों का समूह / (8) मनोवर्गणा:--चिन्तन में सहायक होने वाला पुद्गल-समूह / यहाँ पर वर्गणा से तात्पर्य है एक जाति के पुद्गलों का समूह / पुद्गलों में इस प्रकार की अनन्त जातियां हैं, पर यहाँ पर प्रमुख रूप से आठ जातियों का ही निर्देश किया है। इन वर्गणाओं के अवयव क्रमशः सूक्ष्म और अतिप्रचय वाले होते हैं / एक पौगलिक पदार्थ अन्य पोद्गलिक पदार्थ के रूप में परिवर्तित हो जाता है / प्रौदारिक, वैकिप, आहारक और तेजा ये चार वर्गणाएँ अष्टस्पर्शी हैं। वे हल्की, भारी, मृदु और कठोर भी होती हैं। कार्मण, भाषा और मन ये तीन वर्गणाएँ चतु:स्पी हैं। सूक्ष्मस्कन्ध हैं। इनमें शीत-उष्ण, स्निग्ध-रूक्ष ये चार स्पर्श होते हैं। श्वासोच्छवासवर्गणा चतुःस्पर्शी और अष्टस्पर्शी दोनों प्रकार की होती है। भगवती सूत्र शतक 18, उद्देशक 10 में गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की कि परमाणु पुद्गल एक समय में लोक के पूर्व भाग से पश्चिम भाग में या पश्चिम के अन्त भाग से पूर्व के अन्त भाग में, दक्षिण के अन्त से उत्तर के अन्त भाग में, उत्तर से दक्षिण के अन्त भाग में या नीचे से ऊपर, ऊपर से नीचे जाने में समर्थ है ? भगवान ने कहा-हाँ गौतम! समर्थ है और वह सारे लोक को एक समय में लांध सकता है। इससे यह स्पष्ट है कि परमाणु पुद्गल में कितना सामर्थ्य रहा हुअा है। इस प्रकार भगवतीसूत्र में अनेक प्रश्न पुद्गल के संबंध में आये हैं। जिस प्रकार घुद्गलास्तिकाय के सम्बन्ध में जिज्ञासाएं हैं, वैसे ही अन्य अस्तिकायों के सम्बन्ध में यत्र-तत्र जिज्ञासाएँ प्रस्तुत की गई हैं / वैशेषिक, न्याय, सांख्य प्रति दर्शनों ने जीब, आकाश और पुदगल ये तत्त्व माने हैं। उन्होंने पुदगलास्तिकाय के स्थान पर प्रकृति, परमाणु प्रादि शब्दों का उपयोग किया है / सभी द्रव्यों का स्थान आकाश है किन्तु जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य हो गति और स्थिति शोल हैं। धर्म और अधर्म ये दोनों द्रव्य सम्पूर्ण आकाश में नहीं कुछ ही भाग में हैं। वे जितने भाग में हैं उस भाग को लोकाकाश कहा है / लोकाकाश के चारों ओर अनन्त आकाश है / वह पाकाश अलोकाकाश के नाम से विश्रुत है। भगवतीसूत्र में विविध प्रश्नों के द्वारा इस विषय पर बहत ही गहराई से चिन्तन किया गया है। जहाँ पर धर्म-अधर्म, जीव-पुदगल आदि की अवस्थिति होती है, वह लोक कहलाता है। लोक और अलोक की चर्चा भो भगवती में विस्तार से पाई है। लोक और प्रलोक दोनों शाश्वत हैं। लोक के द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक, भावलोक आदि भेद भगवतीसूत्र शतक 2, उद्देशक 1 में किये गये हैं। भगवती. शतक 12 उद्देशक 7 में लोक कितना विराद है, इस पर प्रकाश डाला है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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