________________ बारहवां शतक : उद्देशक 1] [115 कठिनशब्दार्थ-प्रज्झथिए - अध्यवसाय। उम्मुक्कमणिसुवण्णस्स-मणि, सुवर्ण आदि बहुमूल्य वस्तुनों को छोड़ कर / ववगयमाला-वण्णग-विलवणस्स-माला, वर्णक (सुगन्धितचूर्णपाउडर) एवं विलेपन से रहित हो कर / ' आहार तैयार करने के बाद शंख को बुलाने के लिए पुष्कलो का गमन 13. तए णं ते समणोवासमा जेणेव सावत्थी नगरी जेणेव साई साइं गिहाई तेणेव उवागच्छंति, ते० उ०२ विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उबक्खडावेंति, उ० 2 अन्नमन्ने सद्दाति, अन्न० स० 2 एवं वयासी—'एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हेहिं से विउले असण-पाण-खाइम-साइमे उवक्खडाविते, संखे य णं समणोवासए नो हव्वमागच्छद / तं सेयं खलु देवाणुपिया ! अम्हं संखं समणोवासगं सहावेत्तए।' [13] तत्पश्चात् वे श्रमणोपासक श्रावस्ती नगरी में अपने-अपने घर पहुँचे / और उन्होंने पुष्कल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य (चतुबिध आहार) तैयार करवाया। फिर उन्होंने एक दूसरे को बुलाया और परस्पर इस प्रकार कहने लगे—देवानुप्रियो ! हमने तो (शंख श्रमणोपासक के कहे अनुसार) पुष्कल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य (पाहार) तैयार करवा लिया; परन्तु शंख श्रमणोपासक जल्दी (अभी तक) नहीं पाए इसलिए देवानुप्रियो ! हमें शंख श्रमणोपासक को बुला लाना श्रेयस्कर (अच्छा) है। 14. तए गं से पोक्खलो समणोवासए ते समणोवासए एवं वयासो-'अच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! सुनिन्वया वीसस्था, अहं णं संखं समणोवासगं सद्दावेमिति कटु तेसि समणोवासगाणं अंतियानो पडिनिक्खमति, प० 2 सावत्थीनगरीमझमझेणं जेणेव संखस्स समणोवासयस्स गिहे तेणेव उवागच्छति, ते० उ० 2 संखस्स समणोवासमस्स गिहं अणुपविट्ठ। [14] इसके बाद उस पुष्कली नामक श्रमणोपासक ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा- "देवानुप्रियो ! तुम सब अच्छी तरह स्वस्थ (निश्चित) और विश्वस्त होकर, बैठो, (विधाम लो), मैं शंख श्रमणोपासक को बुलाकर लाता हूँ / " यों कह कर वह उन श्रमणोपासकों के पास से निकल कर श्रावस्ती नगरी के मध्य में होकर जहाँ शंख श्रमणोपासक का घर था, वहाँ आकर उसने शंख श्रमणोपासक के घर में प्रवेश किया। विवेचन प्रस्तुत दो सूत्रों (13-14) में, उक्त श्रमणोपासकों द्वारा भोजन तैयार कराने के बाद जब शंख श्रमणोपासक नहीं पाया तो उसे बुलाने के लिए पुष्कली श्रमणोपासक का उसके घर पहुंचने का वर्णन है। कठिनशब्दार्थ-नो हव्व-मागच्छइ-जल्दी नहीं पाया अथवा अभी तक नहीं आया / अच्छह-बैठो। सुनिया-अच्छी तरह शान्त, या स्वस्थ अथवा निश्चित / वोसत्था-विश्वस्त होकर / / 1. भगवतीसूत्र (विवेचन, पं. घेवरचंदजी) भा-४ पृ. 1974 2. पाइयसहमहनणवो, पृ. 943, 20, 412, 814 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org