________________ 116) व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गुहागत पुष्कली के प्रति शंखपत्नी द्वारा स्वागत-शिष्टाचार और प्रश्नोत्तर 15. तए णं सा उप्पला समणोवासिया पोवलि समणोवासगं एज्जमाणं पासति, पा० 2 हट्ठतु४० आसणातो अब्भुट्ठति, आ० अ० 2 सत्तट्ट पदाइं अणुगच्छति, स० अ० 2 पोर्खाल समणोवासगं वंदति नमसति, वं० 2 आसणेणं उवनिमंतेति, प्रा० उ० 2 एवं वयासी-संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! किमागमणप्पयोयणं ? तए णं से पोक्खली समणोवासए उप्पलं समणोवासियं एवं वयासी- 'कहिं णं देवाणुप्पिए ! संखे समणोवासए ?' तए णं सा उप्पला समणोवासिया पोलि समणोवासगं एवं वयासी-एवं खल देवाणुप्पिया ! संखे समाणोवासए पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी जाव विहरति / [15] तत्पश्चात् पुष्कली श्रमणोपासक को (अपने घर की भोर) प्राते देख कर, वह उत्पला श्रमणोपासिका (शंख श्रमणोपासक की धर्मपत्नी) हर्षित और सन्तुष्ट हुई / वह (तुरन्त ) अपने प्रासन से उठी और सात-आठ कदम (चरण) सामने गई / फिर उसने पुष्कली श्रमणोपासक को वन्दननमस्कार किया, और प्रासन पर बैठने को कहा ! फिर इस प्रकार पूछा--'कहिये, देवानुप्रिय ! आपके (यहाँ) पाते का क्या प्रयोजन है ?' इस पर उस पुष्कली श्रमणोपासक ने, उत्पला श्रमणोपासिका से इस प्रकार कहा--'देवानुप्रिये ! शंख श्रमणोपासक कहाँ हैं ?' (यह सुन कर) उस उत्पला श्रमणोपासिका ने पुष्कली श्रमणोपासक को इस प्रकार उत्तर दिया—'देवानुप्रिय ! बात ऐसी है कि वह (शंख श्रमणोपासक तो आज) पौषधशाला में पौषध ग्रहण करके ब्रह्मचर्ययुक्त होकर यावत् (धर्मजागरणा कर) रहे हैं / विवेचन--प्रस्तुतसूत्र (15) में पुष्कली द्वारा शंख की पत्नी से पूछने पर उसके द्वारा शंख के पौषधग्रहण करके धर्मजागरिका करने का वृत्तान्त प्रतिपादित है। उत्पला द्वारा पुष्कली श्रमणोपासक का स्वागत और शिष्टाचार-प्रस्तुत मूल पाठ में अपने घर पर प्राए हुए शिष्ट जन के स्वागत-सत्कार की उस युग की परम्परा का वर्णन है / इसमें शिष्टाचार सम्बन्धी पांच बातें गभित हैं--(१) घर की ओर आते देख हर्षित और सन्तुष्ट होना, (2) प्रासन से उठ कर स्वागत के लिए सात-पाठ कदम सामने जाना, (3) वन्दन-नमस्कार करना, (4) बैठने के लिए आसन देना, और (5) आदरपूर्वक प्रागमन का प्रयोजन पूछना / / संदिसंतु : दो अर्थ -(1) प्राज्ञा दीजिए, (2) बताइए या कहिए / ' पौषधशाला में स्थित शंख को पुष्कलो द्वारा प्राहारादि करते हुए पौषध का आमंत्रण और उसके द्वारा अस्वीकार 16. तए णं से पोक्खलो समणोवासए जेणेव पोसहसाला जेणेव संखे समणोवासए तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 गमणागमणाए पडिक्कमति, ग०प० 2 संखं समणोवासगं वंदति नमसति, वं० 2 एवं क्यासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हेहि से विउले असण जाव साइमे उवक्खडाविते, 1. वियाहपण्णत्तिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पणसहित) पृ. 563 2. पाइयतद्दमहण्णवो, पृ. 842 --- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org