________________ 104] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र चौबीस दण्डकों में आत्म-शरीरक्षेत्रावगाढ़पुदगलाहार प्ररूपणा 12. नेरतिया गं भते ! जे पोग्गले प्रत्तमायाए श्राहारेति ते किं प्रायसरीरक्खेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति ? प्रणतरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए श्राहारेति ? परंपरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए प्राहारेंति ? गोतमा ! प्रायसरीरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए प्राहारेंति, नो अणंतरखेत्तोगाढे पोगले प्रत्तमायाए प्राहारेंति, नो परंपरखेत्तोगाढे। [12 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव, जिन पुद्गलों का आत्मा (अपने) द्वारा ग्रहणते-पाहार करते हैं, क्या वे आत्म-शरीर क्षेत्रावगाढ़ (जिन आकाशप्रदेशों में शरीर है, उन्हीं प्रदेशों में स्थित) पुद्गलों को प्रात्मा द्वारा ग्रहण करते हैं ? या अनन्तरक्षेत्रावगाढ़ पुद्गलों को आत्मा द्वारा ग्रहण करते हैं ? अथवा परम्परक्षेत्रावगाढ़ पुद्गलों को प्रात्मा द्वारा करते हैं ? [12 उ.] गौतम ! वे आत्म-शरीर-क्षेत्रावगाढ़ पुद्गलों को आत्मा द्वारा ग्रहण करते हैं, किन्तु न तो अनन्तर क्षेत्रावगाढ़ पुद्गलों को आत्मा द्वारा ग्रहण करते हैं और न ही परम्पर. क्षेत्रावगाढ़ पुद्गलों को आत्मा द्वारा ग्रहण करते हैं / 13. जहा नेरइया तहा जाब बेमाणियाणं दंडश्रो / [13] जिस प्रकार नैरयिकों के लिए कहा, उसी प्रकार यावत् वैमानिक-पर्यन्त दण्डक (आलापक) कहना चाहिए। विवेचन-चौवीस दण्डकों में प्रात्मशरीरक्षेत्रावगाढ़पुद्गलाहार-प्ररूपणा–प्रस्तुत दो सूत्रों द्वारा शास्त्रकार ने समस्त संसारी जीवों के द्वारा प्राहाररूप में ग्रहण योग्य पुद्गलों के सम्बन्ध में प्रश्न उठा कर स्वसिद्धान्तसम्मत निर्णय प्रस्तुत किया है। निष्कर्ष-जीव स्वशरीरक्षेत्र में रहे हुए पुद्गलों को आत्मा द्वारा ग्रहण करते हैं, किन्तु स्वशरीर से अनन्तर और परम्पर क्षेत्र में रहे हुए पुद्गलों का प्रात्मा द्वारा आहार नहीं करता।' केवली भगवान का प्रात्मा द्वारा ज्ञान-दर्शनसामर्थ्य 14, [1] केवली णं भते ! प्रायाणेहि जाणति पासति ? गोतमा ! नो इण8०। [14-1 प्र.] भगवन् ! क्या केवली भगवान् इन्द्रियों द्वारा जानते-देखते हैं ? [14-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [2] से केण?णं. ? गोयमा ! केवली णं पुरस्थिमेणं मितं पि जाणति अमितं पि जाति जाव निम्बुडे सणे केलिस्स, से तेण?णं / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 286 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org