________________ छठा शतक : उद्देशक-१० ] [105 . [14-1 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? / [14-2 उ.] गौतम ! केवली भगवान् पूर्व दिशा में मित (परिमित) को भी जानते हैं और अमित को भी जानते हैं; यावत् केवली का (ज्ञान और) दर्शन निवृत्त, (परिपूर्ण, कृत्स्न और निरावरण) होता है / हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है। विवेचन केवली भगवान का प्रात्मा द्वारा ही ज्ञान-दर्शन-सामर्थ्य-इस सम्बन्ध में इसी शास्त्र के पंचम शतक, चतुर्थ उद्देशक में विशेष विवेचन दिया गया है / दसवे उद्देशक को संग्रहणी गाथा--- 15. गाहा ___ जीवाण सुहं दुक्खं जोवे जीवति तहेव भविया य / एगंतदुक्खवेदण अत्तमायाय केवली // 1 // सेवंमते! सेवं भते! ति० / ॥छ8 सए : दसमो उद्देसनो समत्तो। ॥छट्ठसतं समत्तं // [15 गाथार्थ-] जीवों का सुख-दुःख, जीव, जीव का प्राणधारण, भव्य, एकान्त दुःख-वेदना, आत्मा द्वारा पुद्गलों का ग्रहण और केवली, इतने विषयों पर इस दसवें उद्दे शक में विचार किया गया है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरने लगे। . ॥छठा शतक : दशम उद्देशक समाप्त / छठा शतक सम्पूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org