________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१] [195 ऐसा करके उस पृथ्वोशिलापट्ट पर डाभ का संथारा बिछाकर, पूर्वदिशा की ओर मुख करके, पर्यकासन से बैठकर, दसों नख सहित दोनों हाथों को मिलाकर मस्तक पर रखकर, (मस्तक के साथ) दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार बोले-'अरिहन्त भगवन्तों को, यावत् जो मोक्ष को प्राप्त हो चुके हैं, उन्हें नमस्कार हो / तथा अविचल शाश्वत सिद्ध स्थान को प्राप्त करने की इच्छा वाले श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को नमस्कार हो / (अर्थात् 'नमोत्थु णं' के पाठ का दो बार उच्चारण किया / ) तत्पश्चात् कहा-वहाँ रहे हुए भगवान् महावीर स्वामी को यहाँ रहा हुआ (स्थित) मैं वन्दना करता हूँ। वहाँ विराजमान श्रमण भगवान महावीर स्वामी यहां पर रहे हुए मुझ को देखें।' ऐसा कहकर भगवान् को वन्दना-नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार करके वे इस प्रकार बोले-~-'मैंने पहले भी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास यावज्जीवन के लिए सर्व प्राणातिपात का त्याग किया था, यावत मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह ही पापों का त्याग किया था। इस समय भी श्रमण भगवात महावीर स्वामी के पास यावज्जीवन के लिए सर्व प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक अठारह हो पापों का त्याग करता हूँ। और यावज्जीवन के लिए अशन, पान, खादिम और स्वादिम, इन चारों प्रकार के प्राहार का त्याग करता हूँ। तथा यह मेरा शरीर, जो कि मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय है, यावत् जिसकी मैंने बाधा-पोड़ा, रोग, अातंक, परीषह और उपसर्ग आदि से रक्षा की है, ऐसे शरीर का भी अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक व्युत्सर्ग (ममत्व-विसर्जन करता हूँ, यों कहकर संलेखना संथारा करके, भक्त-पान का सर्वथा त्याग करके पादपोपगमन (वृक्ष की कटी हुई शाखा की तरह स्थिर रहकर) अनशन करके मृत्यु को आकांक्षा न करते हुए विचरण करने लगे। 51. तए ण से खदए अणगारे समणस्स भगवश्री महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमादियाई एक्कारस्स अंगाई अहिज्जित्ता बहुपडिपुण्णाई दुवालसवासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता मासियाए सलेहणाए अत्ताणं झसित्ता ट्ठि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता आलोइयपडिक्कते समाहिपते प्राणुपुवीए कालगए। 51] इसके पश्चात् स्कन्दक अनगार, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के तथारूप स्थविरों के पास ग्यारह अंगों का अध्ययन पूरे बारह वर्ष तक श्रमण-पर्याय का पालन करके, एक मास की संलेखना से अपनी आत्मा को संलिखित (सेवित - युक्त) करके साठ भक्त का त्यागरूप अनशन करके, आलोचना और प्रतिक्रमण करके समाधि प्राप्त करके क्रमशः कालधर्म (मरण) को प्राप्त हुए। 52. तए णं ते थेरा भगवतो खंदयं अणगारं कालगयं जाणित्ता परिनिव्वाणवत्तियं काउस्सग करेंति, 2 पत्त चोवराणि गिण्हंति, 2 विपुलाओ पब्बयाओ सणियं 2 पच्चोरहंति, 2 जेणेव समणे भगव महाबीरे तेणेव उवागच्छंति, 2 समर्थ भगवं महावीरं वदंति नमसंति, 2 एवं वदासीएवं खलु देवाणुपियाणं अंतेवासी खंदए नाम अणगारे पगइभद्दए पगतिविणीए पगतिउवसंते पगतिपणुकोह-माण-माया-लोभे मिउ-मद्दवसंपन्ने अल्लोणे भइए विणोए / से णं देवाणुप्रिएहि अभYण्णाए समाणे सयमेव पंच महब्वयाणि पारोवित्ता समणे य समणोप्रो य खामेत्ता, अम्हेहि सद्धि विधुलं पव्वयं तं चेव निरवसेसं जाव (सु. 50) अहाणुपुब्बीए कालगए / इमे य से पायारभंडए / [52] तत्पश्चात् उन स्थविर भगवन्तों ने स्कन्दक अनगार को कालधर्म प्राप्त हुआ जानकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org